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EM पुरोवा
-गणिनी आर्थिका ज्ञानमती
"मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, बंदे तद्गुणलब्धये ॥१॥ महान् आचार्यश्री उमास्वामी ने महान् ग्रन्थराज तत्त्वार्थसूत्र की रचना के प्रारम्भ में "मोक्षमार्गस्य नेतारं" इत्यादि मंगल श्लोक को रचा है। श्री समंतभद्रस्वामी ने इस मंगलाचरण श्लोक का आधार लेकर "आप्तमीमांसा" नाम से एक स्तोत्र रचना की है जिसका अपरनाम "देवागम-स्तोत्र" भी है। श्री भट्टाकलंकदेव ने इसी आप्तमीमांसा स्तुति पर "अष्टशती" नाम से भाष्य बनाया जो कि जैन दर्शन का एक अतीव गूढ़ग्रन्थ बन गया। इसी भाष्य पर आचार्यवर्य श्री विद्यानन्द महोदय ने "अष्टसहस्री" नाम से अलंकार स्वरूप टीका बनाई जो कि जैन दर्शन का सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ कहलाता है। इसमें दश परिच्छेद में अस्ति-नास्ति, भेद-अभेद, द्वैत-अद्वैत आदि एक-एक प्रकरणों के एकांतों का पूर्वपक्ष पूर्वक निरसन करके सर्वत्र स्याद्वाद प्रक्रिया से वस्तुतत्त्व को समझाया गया है । वास्तव में तत्त्व-अतत्त्व को समझने के लिये यह न्याय ग्रन्थ एक कसौटी का पत्थर है और अधिक तो क्या कहा जाये श्री स्वामी समंतभद्राचार्यवर्य ने आप्त और अनाप्त की मीमांसा करते हुये आप्त-अहंतदेव को ही न्याय की कसौटी पर कसकर सत्य आप्त सिद्ध किया है।
प्रथम परिच्छेद देवागमनभोयान-चामरादि-विभूतयः।
मायाविष्वपि दृश्यते नातस्त्वमसि नो महान् ॥१॥ अतिशय गुणों से युक्त भगवान् की स्तुति करने के इच्छुक श्री समंतभद्र स्वामी स्वयं अपनी श्रद्धा और गुणज्ञता लक्षण प्रयोजन से ही इस देवागम स्तव में आप्त की मीमांसा करते हुये भगवान से प्रश्नोत्तर करते हुये के समान ही कहते हैं। अर्थात् मानो भगवान् यहां प्रश्न कर रहे हैं कि हे समंतभद्र ! मुझमें देवों का आगमन, चमर, छत्रादि अनेकों विभूतियां हैं फिर भी तुम मुझे नमस्कार क्यों नहीं करते हो? तब उत्तर में स्वामी जी कहते हैं कि हे भगवन् ! आपके जन्म कल्याणक आदिकों में देव, चक्रवर्ती आदि का आगमन, आकाश में गमन, छत्र, चामर, पुष्पवृष्टि आदि विभूतियां देखी जाती हैं किन्तु ये विभूतियां तो मायावी जनों में भी हो सकती हैं अतएव आप हमारे लिये महान्-पूज्य नहीं हैं ।
___ इस पर भगवान् मानों पुनः प्रश्न करते हैं कि हे समंतभद्र ! बाह्य विभूतियों से तुमने हमें नमस्कार नहीं किया तो न सही किन्तु मस्करी आदि में असंभव ऐसे अन्तरंग में पसीना आदि का न होना एवं बहिरंग में जो गंधोदक वृष्टि आदि महोदय हैं जो कि दिव्य और सत्य हैं वे मुझमें हैं अतः आप मेरी स्तुति करिये । इस पर श्री समंतभद्र स्वामी कहते हैं कि अन्तरंग और बहिरंग शरीरादि के महोदय भी रागादिमान् देवों में
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