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________________ १५२ ] अष्टसहस्री [ सर्वथासदेव कार्यरूपेण भवतीति मान्यतायां का हानि: ? तत्स्पष्टयंति । ] न च सर्वथाप्यसतः' कार्यत्वेन्वयव्यतिरेकप्रतीतिः कार्यकारणभावव्यवस्थाहेतुः 2, कारणाभावे' एव कार्यस्य भावाद्भावे चाभावात् । इति निषेदितप्रायम्' । तन्नासत्कार्यं', सर्वथाप्यनुत्पादप्रसङ्गात् खकुसुमवदिति व्यवतिष्ठते, 'कार्यत्वकथंचित्सत्त्वयोरेव' व्याप्यव्यापकभावस्य प्रसिद्धेस्तथा प्रतीतेः । तत एव न तादृक्कारणवत्, सर्वथाऽभूतत्वाद्वन्ध्यासुतवत् कथंचिदस्थितानुत्पन्नत्वादिति योज्यम् । न हि सर्वथाप्यसत्कार्यमभूतं न भवति, यतः "कथंचिदप्यस्थितमनुत्पन्नं च न स्यात् कथंचित्सत एव स्थितत्वोत्पन्नत्वघटनाद्विनाशघटनवत्, [ तृ० प० कारिका ४२ | सर्वथा असत् को कार्यरूप होना मानने में क्या हानि है ? सो बताते हैं ] सर्वथा असत् को ही कार्यरूप से होना स्वीकार करने पर अन्वय व्यतिरेक की प्रतीति कार्यकारणभाव की व्यवस्था में हेतु नहीं हो सकती है । क्योंकि कारण के अभाव में ही कार्य का सद्भाव हो जाता है और कारण होने पर नहीं होता है । इस प्रकार से प्राय: बहुत बार प्रतिपादन किया गया है । " इसलिये असत् ही कार्यरूप नहीं है अन्यथा सर्वथा भी उत्पाद न होने का प्रसंग आ जायेगा । अर्थात् कोई वस्तु पर्यायरूप से भी उत्पन्न नहीं हो सकेगी । आकाश कुसुम के समान । यह अनुमान व्यवस्थित है । क्योंकि कार्यत्व और कथंचित् सत्व में ही व्याप्य व्यापक भाव की प्रसिद्धि है । और वैसा ही अनुभव आ रहा है । I भावार्थ - कारण के नष्ट होने के बाद वह नष्ट हुआ कारण असत् रूप हो गया है और उसी से ही उत्तर क्षण में कार्य बन जाता है । आचार्य कहते हैं कि यह बात ठीक नहीं है क्योंकि कार्य और कथंचित् सत्तव इन दोनों में व्याप्य व्यापक सम्बन्ध है, कार्य व्याप्य है कथंचित् सत्त्व व्यापक है । जैसे वृक्षत्व व्यापक है और निबत्व व्याप्य है । वृक्ष के बिना नीम का होना असम्भव है वैसे ही कथंचित् सत्त्व को माने बिना कार्य का होना असम्भव है । मृत्पिंडरूप कारण घटरूप कार्य से असत् है फिर भी मिट्टी रूप द्रव्य से सत् है उसका विनाश होकर घट नहीं बना है प्रत्युत मिट्टी ही घटरूप परिणत हुई है। पर्याय की अपेक्षा से असत् का उत्पाद होता है और द्रव्य की अपेक्षा से सत् का ही उत्पाद होता है । अतः कार्य और कथचित् सत्त्व का व्याप्य व्यापक सम्बन्ध ठीक है । इसीलिये "वैसा असत् कार्य-कारण वाला नहीं है, क्योंकि वह सर्वथा असत् रूप है वंध्या के पुत्र के समान । कथंचित् अस्थित, अनुत्पन्न रूप है ।" इस प्रकार से भी लगा लेना चाहिये । अर्थात् Jain Education International 1 अन्वयव्यतिरेकभावं प्रदर्शयति । दि० प्र० । 2 क्षणिकलक्षणं । ब्या प्र० । 3 का । दि० प्र० । 4 प्राकृत्वा - 6 द्वन्द्व । व्या० प्र० । ज्जल्पेन प्रतिपादितं यत एवं तत्तस्मात् । दि० प्र० । 5 पर्यायरूपेणापि । व्या० प्र० । 7 द्रव्यरूपतया । ब्या० प्र० । 8 सदनुत्पन्न । ब्या० प्र० । 9 अविद्यमानं भवत्येव । ब्या० प्र० । 10 कार्यरूपतया । ब्या० प्र० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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