SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षणिक एकांत का निराकरण ] तृतीय भाग [ १५१ निराकृतावुभयनिराकृतिरभेदात् ' । 2 कथमन्वयव्यतिरेकयोरभेद इति चेत् कारणस्य भावे भावस्यैव' तदभावेऽभावरूपत्वात् । न हि कारणस्याभावेऽभाव एव भावे भावो न प्रतीयते यतस्तदभेदो' न स्यात् । कथं भावस्वभावनिबन्धनान्वयव्यतिरेकप्रतीतिस्तस्या भावाभावस्वभावनिबन्धनत्वादित्यप्यनाशङ्कनीयं', स्वभावान्तरस्यैवाभावव्यवहारार्हत्वात् । [ व्यतिरेकज्ञानं भावस्वभावनिमित्तकं कथं भवेत् ? ] पावकविविक्त प्रदेशविशेषस्यैव' पावकाभावस्य धूमरहितदेशस्य च धूमाभावस्य प्रतीतिगोचरत्वात्', पावकाभावे धूमाभावस्य च व्यतिरेकलक्षणत्वात् सिद्धं व्यतिरेकप्रतीतेर्भावस्वभावनिबन्धनत्वमन्वयप्रतीतेरिव । इति निरारेक, नीरूपस्याभावस्य " प्रतिक्षेपात् " । बौद्ध - अन्वयव्यतिरेक की प्रतीति भाव-स्वभावनिमित्तक कैसे है ? क्योंकि अन्वय तो भाव स्वभाव निमित्तक है और व्यतिरेक अभाव स्वभाव निमित्तक है । जैन - यह आशंका भी गलत है । क्योंकि स्वभावांतर भिन्न स्वभाव ही 'अभाव' इस व्यवहार योग्य होता है । अर्थात् हमारे यहाँ नि.स्वभाव - तुच्छाभाव तो माना ही नहीं गया है । [ व्यतिरेक ज्ञान भाव स्वभाव निमित्तक कैसे होगा ? ] अग्नि से रहित प्रदेश विशेष ही तो अग्नि का अभाव है तथा धूम रहित प्रदेश ही धूम का अभाव है ऐसा प्रतीति में आ रहा है । अर्थात् अग्नि का वहाँ अभाव है किन्तु उस प्रदेश का सद्भाव है । एवं धूम का अभाव है किन्तु धूम रहित स्थान का सद्भाव है । अग्नि के अभाव में धूम का अभाव है यही तो व्यतिरेक का लक्षण है । उस व्यतिरेक का अनुभव, भाव स्वभाव के निमित्त से ही होता है । यह बात सिद्ध हो गई, जैसे कि अन्वय भाव स्वभाव हेतु का है । तथैव । अर्थात् जिस प्रदेश में afra नहीं है वहाँ धुआँ भी नहीं है यह व्यतिरेक उदाहरण है, परन्तु अग्नि और धुएँ के अभाव में भी प्रदेश का सद्भाव है अतएव वह व्यतिरेक भाव स्वभाव के निमित्त से ही होता है। इसमें किसी भी प्रकार की शंका नहीं है। क्योंकि पूर्व में हमने नीरूप अभाव ! तुच्छाभाव का खंडन कर दिया है । 1 अभेदोयतः । ( ब्या० प्र० ) । 2 अत्राह परः सोगतादिः हे स्याद्वादिन् अन्वयव्यतिरेकयोरभेदः कथं इति चेत् कारणस्य भावे भावरूपत्वात् कारणस्याभावे अभावरूपत्वात् । दि० प्र० । 3 कार्यत्वस्य । व्या० Яо 1 4 यतः कुतः तयोः अन्वयव्यतिरेकयोरभेदो न भवेत् अपितु भवेदिति । दि० प्र० । 5 परः । दि० प्र० । 6 जैनः दि० प्र० 17 रहितम् । दि० प्र० । 8 यतः । दि० प्र० । 9 पावकभावे धूमसद्भावस्यान्वयलक्षणत्वात् अन्वयप्रतीतेर्यथाभावस्वभावनिबन्धनत्वं सिद्धमिति निःशङ्कम् । दि० प्र० । 10 निःस्वभावस्याभावस्य निराकरणात् । कोर्थः अभावो निःस्वभावो न भवति तहि कि स्वभावान्तर एवाभावः न तु तुच्छाभावः । दि० प्र० । 11 द्रव्यरूपेणापि । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy