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________________ क्षणिक एकांत का निराकरण ] तृतीय भाग [ १५३ सत उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्वलक्षणत्वात् । न चोत्पादादित्रयरहितं वस्तु समस्ति यतः कारणवत्स्यात् निरन्वयविनाशे' तत्कारणस्य तद्भावायोगात् कार्यस्य तद्भावायोगवत् । [ असत्कार्ये यदि उत्पादादित्रयं न घटते तहि सत्यपि प्रभवलक्षणे उत्पादादित्रयं कथं सिद्धमिति प्रश्ने सति जैनाचार्याः समादधते । ] सत्यपि प्रभवलक्षणे 'पूर्वपूर्वस्योत्तरीभवनं मृत्पिण्डस्थासकोशकुशूलादिषु सकललोकसाक्षिकं सिद्धम् । तन्न' स्वमनीषिकाभिः सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भानवधारणा सर्वथा भी असत के कार्यरूपता नहीं हो सकती है। वंध्या का पूत्र किसी भी प्रकार से स्थित और उत्पन्न होने वाला नहीं है उसी प्रकार असत् रूप कार्य द्रव्य की अपेक्षा से भी स्थित नहीं है एवं उत्पन्न रूप भी नहीं है। सर्वथा भी असत् कार्य अभूत नहीं होने रूप नहीं होता है, ऐसा भी नहीं है कि जिससे वह कथंचित् भी अस्थित अनुत्पन्न न होवे । अर्थात् जो असत्कार्य द्रव्य रूप से न स्थित है न उत्पन्न है, पुनः वह कार्य रूप से स्थित और उत्पन्न कैसे हो सकेगा ? इसलिये कथंचित्-द्रव्य रूप से सत् में ही स्थिति और उत्पाद घटित हो सकते हैं, जैसे कि विनाश भी सत् में ही घटित होता है सर्वथा असत् में नहीं। क्योंकि सत्, उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक लक्षण वाला है । एवं उत्पाद व्यय ध्रौव्य इन तीनों से रहित कोई वस्तु ही नहीं है कि जिससे वह कारण वाली हो सके, अर्थात् नहीं हो सकती है। क्योंकि निरन्वय विनाश के होने पर उस निरन्वय विनाश रूप कारण रूप से रहना ही असम्भव है। जैसे कि निरन्वय विनाशी कारण से हुआ कार्य, कार्य रूप से नहीं रह सकता है। अर्थात् निरन्वय विनष्ट मृत्पिड घट कार्यरूप नहीं होगा और घट कार्य निरन्वय विनष्ट मिट्टी का नहीं होगा। [ यदि असत् कार्य में उत्पादादि तीनों नहीं घटते हैं तब तो प्रभव लक्षण के होने पर भी उत्पादादि तीनों कैसे घटेंगे? इस पर जैनाचार्य कहते हैं। ] प्रभाव लक्षण अर्थात् कार्य कारण लक्षण के होने पर भी पूर्व पूर्व का उत्तर रूप होना मुत्पिड, स्थास, कोश, कुशूलादिकों में सकल लोक साक्षिक सिद्ध ही हैं। उसमें अपनी बुद्धि मात्र से सदृश रूप अपरापर कार्य की उत्पत्ति में विप्रलम्भ से भेद के अनवधारण की कल्पना को करते हुये क्षणों में उपादान का नियम नहीं हो सकता है। कारणांतर के समान । उपर्युक्त क्षणों में एवं भिन्न कारणों में अन्वय का अभाव दोनों में ही समान है। क्योंकि ये सर्वथा विलक्षण रूप भेदरूप हैं। 1 उत्पादादित्रययुक्तत्वमसिद्धमित्याशङ्कायामाह । ब्या० प्र०। 2 उत्पादादित्रयरहितं वस्तु विद्यते हे सौगत इति त्वया न प्रष्टव्यमुत्पादादेस्त्रयरहितं वस्तुकारणवत् कारणात्मकं कारणं वा यतः कुतः स्यान्न कुतोऽपि । ३ स्याद्वाद्याह निरन्वयविनाशे वस्तुनो मूलतो विनाशाभ्युपगमेत् । विवक्षितकारणस्य कारणत्वं न घटते । यथा विवक्षितकार्यस्य कार्यत्वं न घटते । दि० प्र०। 4 कारणस्य । ब्या प्र०। 5 कार्यरूपतया। ब्या० प्र०। 6 बौद्धाभिप्रायमनूद्य दूषयति । ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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