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________________ क्षणिक एकांत में दूषण ] [ १४३ 'ज्ञानकरणवदुत्तरशब्दादिकरणमनुमीयतां, रूपोपादानाद्रूपोत्पत्तिवत् । तस्मात् कथंचन स्थितिमतः प्रतिक्षणं विवतोपि नान्यथा, गगनकुसुमवत् । यदि पुनः परमार्थतः कार्यकारणभावस्याभावाद्विरोध्यविरोधकभावादिवत् प्रतिक्षणं विवर्तोपि नेष्यते संविदद्वैताभ्युपगमादिति मतिस्तदा प्रभवादेरयोगात् कुतः प्रेत्यभावादिः ? तृतीय भाग बौद्ध - सजातीय उत्तर कार्य को करने के प्रकार से वैसा ही देखा जाता है अतः रूप का अनुमान न करने से रूप अनिष्ट का प्रसंग नहीं आयेगा । जैन - यदि ऐसा कहते हो तब तो यह बतलाइये कि शब्द से ही शब्द की उत्पत्ति होते हुये क्या आपने कभी देखी है ? कि जिससे शब्द का उपादान कारण न दिखने पर भी आप अनुमित कर लेते हैं । अर्थात् नहीं कर सकते । बौद्ध - शंखादि के शब्दों की संतति के होने पर उसकी मध्य अवस्था में शब्द से ही शब्द की उत्पत्ति देखी जाती है । जैन - पुनः उस शब्द से उत्तर शब्द की उत्पत्ति क्यों नहीं देखी जाती है ? बौद्ध - उसी प्रकार से ही वे देखे जाते हैं अर्थात् शंख शब्द की परम्परा ध्वनि होने पर मध्य में ही वे शब्द दिखते हैं तो हम क्या करें । जैन — तब तो जैसे आपने माना है कि शब्द से शब्दरूप कार्य नहीं होते हैं किन्तु उनसे योगियों का ज्ञानरूप कार्य होता है । उसी प्रकार से आप शब्द से योगी को ज्ञान होने के समान शब्दादि से शब्द आदि का करना भी मान लीजिये जसे कि पूर्व के रूपक्षण उपादान से उत्तर के रूपक्षण की उत्पत्ति आप मानते हैं । 1 शब्दः योगिज्ञानं यथानुत्पादयति तथा उत्तरशब्द मपि । दि० प्र० । 2 योगाचारः । दि० प्र० । 3 विवादापन्नं पक्ष : नोत्पद्यते इति साध्यो धर्मः कथञ्चनस्थितिरहितत्वात् यथा गगन कुसुमं = स्याद्वाद्यभिप्रायः रूपापादानं रूपं करोति रसादि सहकारि च भवति । तथा शब्दादि उत्तरकार्यं करोति योगिज्ञानि विषयश्च भवति एवं सर्वोप्यर्थः अनेकां क्रियां करोति । दि० प्र० । 4 अत्राह स्याद्वादी, हे संवेदनाद्वैतवादिन् । यदि पुनः त्वया परमार्थबृत्या यथा विरोध्यविरोधकाभावात्तथा कार्यकारणाभावात् वस्तुनः प्रतिसमयमुत्पादविनाशलक्षणः पर्यायोनाङ्गीक्रियते, कस्मात्संवेदनाद्वैताङ्गीकारात् इति न वमतिः इति चेत्तदा उत्पादव्ययादेः पर्यायस्य अघटनात्परलोकादि कुतः न कुतोपि । कस्मात् | जैनैरारोप्यमागस्य प्रेत्यभावपुण्यपापाद्यभावस्य स्वयमेव संवेदनाद्वैतवादिभिः अङ्गीकरणात् । एतद्वचोभवतां भीतप्रलापमात्रं दृश्यते । कस्मात्सवेदना द्वैतस्य साधकप्रमाणाभावात् = पुनराह संविन्मात्रं स्वकार्यं करोति न करोति वा इति विकल्पः । संविन्मात्रं स्वकार्य न करोति तदा अनर्थक्रियाकारित्वे सति वस्तुत्वं विरुध्यते यथा सर्वथा नित्यस्य सर्वथा क्षणिकस्य वा संविन्मात्रं स्वकार्यं करोति चेत्तदा कार्यकारणद्वय सिद्धौ द्वैतमायाति = पुनराह संवेदनाद्वैतं भेदभ्रान्तिं वाधते इति चेत्तदा वाध्यवाधकभावः समायातः । भेदभ्रान्तिर्वाध्या, संवेदनाद्वैतं बाधकं एवं सति द्वैतमायाति । अथ संवेदनाद्वैतं भेदभ्रान्तिं न वाधते चेत्तदा संवेदनाद्वैतस्य स्थितिनंस्यात् । कस्मात् प्रतिद्वैतविनाशाभावात् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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