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________________ १४४ ] अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ४१ [ संवेदनाद्वैतस्य निराकरणं ] स्थाद्वादिभिरापाद्यस्य प्रेत्यभावपुण्यपापक्रियाबन्धमोक्षतत्फलाभावस्य' स्वयमेवाभ्युपगमादतिभीतप्रलापमात्रमेतदालक्ष्यते, संविदद्वैतस्य साधनासंभवात् , संविन्मात्रस्य स्वकार्याकरणे नर्थक्रियाकारिणो वस्तुत्वविरोधान्नित्यत्ववत्, तस्य स्वकार्यकरणे कार्यकारणस्वभावसिद्धेः । इसलिये कथंचन-द्रव्य को अपेक्षा से स्थितिमान पदार्थ में प्रतिक्षण विवर्त पर्यायें भी हो सकती हैं । अन्यथा-स्थितिमान के अभाव में तो उसकी पर्यायें भी नहीं हो सकती हैं। जैसे कि आकाश पुष्प की पर्याय नहीं हो सकती हैं। यदि पुनः विरोध्य विरोधक भावादि के समान परमार्थ से कार्य-कारणभाव का अभाव होने से प्रतिक्षण होने वाली पर्यायों को भी आप स्वीकार नहीं करते हैं। तथा संवेदनाद्वैत को स्वीकार करते हैं। तब तो प्रभवादि-कार्य आदि भावों का अभाव होने से प्रेत्यभाव आदि भी कैसे हो सकेंगे? [ संवेदनाद्वैत का निराकरण ] तथा स्याद्वादियों के प्रदर्शित प्रेत्यभाव, पुण्य पाप क्रिया बंध और मोक्ष और उनका फल इन सबके अभावरूप दूषण को आप (बौद्ध) योगाचारों ने तो स्वयं ही स्वीकार कर लिया है। अतएव आपके वचन अतिभय से प्रलाप मात्र ही मालूम पड़ते हैं। क्योंकि संवेदनाद्वैत की सिद्धि असम्भव है। संविन्मात्र-विज्ञान तत्व मात्र उत्तरक्षणरूप ज्ञान कार्य को नहीं करता है इसलिये वह अर्थक्रियाकारी नहीं है, अतएव वह वस्तु रूप भी नहीं हो सकता है। एवं जैसे कि सर्वथा नित्यत्व में वस्तुत्व का विरोध है। अर्थात् विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध एक ज्ञान मात्र ही तत्व मानते हैं उस ज्ञान की स्थिति भी एक क्षणमात्र ही मानते हैं अतः पूर्वक्षण का ज्ञान उत्तरक्षणरूप ज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकता है। अतः वह किसी अर्थक्रिया को न करने से अवस्तु ही हो जाता है। और यदि आप कहें कि संवित् मात्र स्वकार्य-उत्तरक्षणरूप ज्ञान कार्य को करता है तब तो उसमें कार्य कारण सिद्ध हो जाता है। अर्थात् कार्य-कारणभाव के सिद्ध हो जाने से भी द्वैत का प्रसंग आने से संवेदनाद्वैत की सिद्धि नहीं होगी। 1 पुण्यादि । दि० प्र०। 2 तत्प्रतिष्ठामेव नेत्ति कुतः कार्यकारणभावाद्यभावः स्यादित्यर्थः किञ्च संविन्मात्र किञ्चित कार्य करोति न वा ॥ ब्या० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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