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________________ १४२ ] - अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ४१ नमनुमीयते निणिबन्धनोत्पादप्रसङ्गभयान्न पुनस्तदुत्तरकार्यमवस्तुत्वानुषङ्गभयादिति किमपि महामोहविलसितम् । शब्दादेरुत्तरकार्याकरणेपि योगिज्ञानस्य करणान्नावस्तुत्वप्रसक्तिरिति चेन्न, आस्वाद्यमानरससमानकालरूपोपादानस्य रूपाकरणेपि रससहकारित्वप्रसङ्गात्, ततो रसाद्रूपानुमानानुपपत्तेरनिष्टप्रसङ्गात् । तथा 'दृष्टत्वान्नेहानिष्टप्रसङ्ग इति चेत्, किं पुनः शब्दादेव शब्दस्योत्पत्तिरुपलब्धा कदाचित् ? शङ्खादिशब्दसंततौ मध्यावस्थायां शब्दादेव शब्दस्योत्पत्तिर्दृष्टेति चेत् कथमुत्तरशब्दोत्पत्तिरदृष्टा ? तथैव तद्दष्टेरिति शब्दादेर्योगि हुये भी आप बौद्धों को मानना ही चाहिये । मतलब बौद्ध का कहना है कि शब्द, बिजली, दीपक आदि तो स्पष्टतया क्षणिक हैं उत्पन्न होते ही तो नष्ट हो जाते हैं अतः उनकी स्थिति जैनों ने कैसे मान ली ? इस पर आचार्य कहते हैं कि आप शब्द, बिजली आदि के उपादान कारणों को तो स्वीकार कर लेते हो वैसे ही उनका आगे का कार्य नहीं दिखता है तो अनुमान से मान लेना चाहिये । शब्द, विद्युत् आदिकों के उपादान को साक्षात् उपलब्ध न करते हये भी उस उपादान को आप बौद्धों ने माना है क्योंकि निनिमित्तक उत्पाद का प्रसंग न आ जावे इस भय से तो आपने उत्पत्ति का उपादान स्वीकार कर लिया है किन्तु वस्तु की स्थिति का उपादान न मानने पर उत्तरकाल में उसे , अवस्तुपने का प्रसंग आ जायेगा। इसका भय आपको नहीं है यह तो कुछ एक महामोह का ही विलास है । अर्थात् शब्द, बिजली आदि के उपादान कारण दिखते नहीं हैं फिर भी बौद्धों ने उसे मान लिया है क्योंकि उनके यहाँ उत्पाद को निर्हेतुक नहीं माना है । अतः किसी के भी उत्पाद को निर्हेतुक मानने से डरते हैं किन्तु वस्तु की स्थिति का उपादान न मानने से वस्तु अवस्तु हो जायेगी। इस बात का इन्हें डर नहीं है। बौद्ध-शब्दादि उत्तर कार्य को नहीं करने पर भी योगी के ज्ञान रूप कार्य को करते हैं इस. लिये उनके अवस्तुपने का प्रसंग नहीं आता है। जैन-ऐसा नहीं कहना। आस्वादित किये गये रस के समान काल में रूप का उपादान भूत पूर्व रूप क्षण रूप को नहीं करता है फिर भी उस रस के उत्पादन में वह सहकारी कारण बन जायेगा। और उस रस से रूप का अनुमान नहीं हो सकता है अन्यथा अनिष्ट का प्रसंग आ जायेगा। अर्थात् उत्तर कालीन रूप को नहीं करने से उत्तर रस के समय में रूप का असत्त्व हो जाने से उसका अनुमान नहीं हो सकता है। 1 स्थितिरूपेण कार्यमनुमेयं कथं न तावत् । ब्या० प्र०। 2 आस्वाद्यमानरसेन समानः कालो यस्य तच्च तद्रूप च तस्य यदुपादानं प्राक्तनरूपं तस्योत्तरकार्यभूत रूपाकरणे । ब्या० प्र० । 3 अत्राह बौद्धः रसाद्रूपानुमानं दृष्टं जनः । तत इह रसापानुमाने अनिष्ट प्रसंगो न इति चेत् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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