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________________ क्षणिक एकांत में दूषण ] तृतीय भाग [ १४१ करणायोगादनुत्पत्तिस्वभावस्योत्पत्तिकरणायोगवत् । ततः स्थितिस्वभावनियतोर्थः ' स्यात् सर्वदा स्थितेरहेतुकत्वात्' । [ वस्तुनो स्थित्युपादानवत् तदन्तेऽपि स्थितिः स्वीकर्तव्या । ] 'तदेवमादौ स्थिति दर्शनाच्छन्द विद्युत्प्रदीपादेरन्तेपि स्थितेरनुमानं युक्तम् । अन्ययान्ते क्षयदर्शनादादौ तत्प्रतिपत्तिरसमञ्जसैव । तादृशः कारणादर्शनेपि कथंचिदुपादानानुमानवत्' तत्कार्यसन्तानस्थितिरदृष्टाप्यनुमीयेत । शब्दविद्युदादेः साक्षादनुपलब्धमुपादा कि स्थितिमान् वस्तु में स्थिति को करने के पहले वह वस्तु किस रूप है ? शायद स्थिति के पहले तो वह वस्तु आकाश पुष्प के समान अभावरूप ही रहेगी यदि कहो कि स्थिति को करने के पहले वह वस्तु सद्भाव रूप है तब तो उसमें स्थिति को करने का क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ ? वह तो स्वयं सद्भाव यानी स्थिति रूप ही है । अतः स्थिति और स्थितिमान् में कारण कार्य भाव मानना शक्य नहीं है । इसलिये प्रत्येक वस्तु स्थिति स्वभाव वाली ही सिद्ध हो जाती है, पुनः स्थिति को अन्य कारणों से मानकर सहेतुक कहना गलत है प्रत्युत वस्तु को स्थिति अहेतुक ही है । द्रव्यार्थिक नय से प्रत्येक वस्तुयें अनादि अनंतरूप हैं एवं पर्यायार्थिक नय से प्रत्येक वस्तुयें उत्पाद व्ययरूप भी मानी गई हैं। अतः प्रत्येक वस्तु का धौव्यगुण या अस्तित्व पर की अपेक्षा नहीं रखते हुये शाश्वत विद्यमान है । [ वस्तु की स्थिति के उपादान के समान अन्त में भी उसकी स्थिति स्वीकार करना चाहिये । ] इस प्रकार से आदि में शब्द, विद्युत्, प्रदीप आदि वस्तुओं की स्थिति देखने से अन्त में भी उनकी स्थिति का अनुमान करना युक्त ही है अन्यथा अन्त में क्षय - विनाश को देखने से आदि में उस क्षय का ज्ञान करना असमञ्जस हो हो जायेगा । उसी के सदृश प्रारम्भ में स्थितिमान् की उत्पत्ति के कारणों को नहीं देखने पर भी उनकी कार्य संतान स्थिति अदृष्ट होते हुये भी अनुमित करना ही चाहिये । कथंचित् उपादान का अनुमान के समान । भावार्थ - शब्द, विद्युत् आदि का उत्पत्ति के प्रति कथंचित् उपादान का अनुमान आप बौद्धों माना ही है उसी प्रकार से उन विद्युत् शब्द प्रदीप आदिकों के कार्य संतान की स्थिति, अदृष्ट होते 1 साध्यः । व्या० प्र० । 2 स्याद्वाद्याह अर्थ: पक्ष: स्थितिस्वभावनियतो भवतीति साध्यो धर्म स्थिति प्रति कारणानपेक्षत्वात् यथा विनाशं प्रत्यनपेक्षो विनाशः शब्द विद्युत्प्रदीपादि पक्षः अन्तेपि स्थितिमान् भवतीति साध्यो धर्मः आदौ स्थितिदर्शनत्वान्यथानुपपत्तेः इत्यनुमानं युक्त । अन्यथा अन्तेपि स्थितेरनुमानं युक्त न भवति चेत्तदा । आदो तस्य शब्द विद्युत्प्रदीपादेः निस्थितिरसत्या भवतु इत्यारोपः । अन्ते क्षयदर्शनात् । दि० प्र० । 3 वस्तुनः स्थितिस्वभावनियतत्वे सति । व्या० प्र० । 4 ननु कथमिदं सर्वभावानां स्थितिस्वभावनियतत्वसाधनं संगतं शब्दविद्युत्प्रदीपादिनाऽनेकान्तादित्याशंकायामाह । ब्या० प्र० । 5 अन्तेस्थितिमतः । व्या० प्र० । 6 आद्यशब्द क्षणः सजातीयोगदानपूर्वकः काय्र्यत्वात् शब्द क्षणवत् । अन्त्य शब्द सजातीयोपादेय जन कस्तत एव तद्वत् । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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