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________________ १४० ] अष्टसहस्री [ तृ ० ५० कारिका ४१ संबन्ध इति चेन्न, अर्थान्तरभूतयोः कार्यकारणभावाभावे तदभावाभ्युपगमात् कुण्डबदरवत् । तदव्यतिरिक्ता स्थितिस्तद्धेतुना विधीयते इत्ययमपि पक्षो न श्रेयान्, तद्वैयर्थ्यात्, स्थितिस्वभावस्यापि स्थितिकरणे तत्कारणानामनुपरमप्रसङ्गात्', स्वयमस्थितिस्वभावस्य स्थिति जैन-इसलिये पदार्थ निश्चित ही स्थिति स्वभाव वाला है क्योंकि स्थिति सर्वदा अहेतुक है । भावार्थ-बौद्ध का कहना है कि प्रत्येक वस्तु एक क्षण मात्र ठहरती है दूसरे ही क्षण में आमूल चूल समाप्त हो जाती है, इसी का नाम क्षणिक सिद्धांत है। तथा उसकी एक मान्यता और भी बड़ी विचित्र है । यहाँ उसका कहना है कि वस्तु का विनाश अहेतुक है। किन्तु जैनाचार्य इसकी मान्यता का खंडन करते हैं। उनका कहना है कि एक तो वस्तु का प्रतिक्षण विनाश असंभव है। क्योंकि वस्तुओं का बहुत काल तक रहना भी देखा जाता है। तथा विनाश का अहेतुक कहना भी गलत है क्योंकि मुद्धर से घड़े का फूटना देखा जाता है । बौद्ध का कहना है कि मुद्गर की चोट से घड़ा फूटा, इसमें घड़े के फूटने में मृद्वर कारण नहीं है किन्तु कपालों के उत्पादन में मुद्गर कारण अवश्य है एवं विनाश को सहेतुक मानने वालों के प्रति बह बौद्ध अनेकों दोष दिखा रहा है। प्रथम ही उसका प्रश्न है कि घड़े का विनाश यदि मुद्गर से हुआ है तो वह घड़े का विनाश मुद्वर कारण से भिन्न है या अभिन्न ? यदि मुद्गर कारण से घट का विनाश होना भिन्न है तब तो घड़ा जैसे का तैसा ही रहा । यदि द्वितीय पक्ष लेबो कि मुद्गर कारण से किया गया घट का विनाश घट से अभिन्न है तब तो घट से अभिन्न विनाश के होने से अन्य दूसरे कारण घट के विनाश में व्यर्थ ही रहे अतः विनाश को अहेतुक मानना ठीक है । बौद्ध की इस बात को सुनकर जैनाचार्य कहते हैं कि जैसे आप विनाश को निहंतुक मानते हो और कारण सहित मानने में दोषारोपण करते हो वैसे ही हम आप विपरीत स्थिति को निर्हेतुक सिद्ध कर रहे हैं। वस्तु की स्थिति अथत् वस्तु का ठहरना, रहना आदि यह वस्तु का ध्रौव्य रूप अस्तित्व भी कहा जा सकता है। देखिये ! स्थिति को सकारणक मानने वालों के प्रति हम भी पूर्वोक्त दोषों का आरोप करते हैं। प्रथम ही प्रश्न होता है कि वस्तु में जो स्थिति है यदि वह स्थिति अन्य कारणों के द्वारा की जाती है तब तो यह बताओ कि वह स्तू वकी स्थिति जिन कारणों से की गई है वे कारण उस स्थिति से भिन्न हैं या अभिन्न ? यदि भिन्न कहो तो उस वस्तु की स्थिति को करने वाले कारणों के स्थिति से भिन्न ही रहने पर तो वस्तु का स्थिर स्वभाव नहीं रहेगा। प्रत्येक वस्तु में अस्थिरपना ही सिद्ध हो जावेगा। यदि द्वितीय पक्ष लेवो कि जिन कारणों से वस्तु में स्थिति की जाती है वे कारण उस स्थिति से अभिन्न हैं तब तो वे कारण व्यर्थ ही रहे। दूसरी बात यह भी है कि यदि वस्तु की स्थिति अन्य कारणों से की जाती है तब तो वस्तु और उसको स्थिति ऐसे दो हो गये और जिसमें स्थिति की जाती है वह वस्तु स्थितिमान् हो गई जैसे धन से व्यक्ति धनी किया जाता है अतः धन और धनवान् ये दो चीजें सिद्ध हैं। एवं दो चीज हो जाने पर प्रश्न यह होता है 1 स्थितेर्वस्तुनो व्यतिरिक्ताया अकरणंयतः । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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