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________________ क्षणिक एकांत में दूषण ] तृतीय भाग रिक्ता स्थितिस्तद्धे तुना क्रियते तस्यास्थास्नुत्वापत्तेः । 'स्थितिसंबन्धात्तस्य स्थास्नुतेति चेन्न, स्थितितद्वतोः कार्यकारणभावासंभवात् सहभावात्तयोः, असहभावे स्थितेः पूर्वं तत्कारणस्यास्थितिप्रसक्तेः, स्थितेरपि स्वकारणादुत्तरकालमनाश्रयत्वानुषङ्गात्। तयोराश्रयाश्रयिभावः यदि आप कहें कि स्थिति के सम्बन्ध से वस्तु में स्थास्तुता-स्थिरता है तो यह भी कथन ठीक नहीं है, स्थिति और स्थितिमान् में कार्य-कारणभाव ही असंभव है क्योंकि उन दोनों में सहभाव है । उन स्थिति और स्थितिमान में सहभाव के न मानने पर स्थिति के पहले उस कारणरूप-स्थितिमान् वस्तु को अस्थित (नहीं रहना) का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा । और स्थिति भी स्वकारण से उत्तरकाल में अनाश्रयपने को प्राप्त हो जायेगी अर्थात् स्थिति के पहले स्थितिमान् नहीं हो सकता है स्थितिमान् के न रहने से स्थिति को आश्रय देने वाला कोई नहीं रहने से उस स्थिति का अस्तित्व ही ___ यदि आप कहें कि-उन स्थिति और स्थितिमान में आश्रय आश्रयीभाव सम्बन्ध है । सो भी नहीं कह सकते। क्योंकि भिन्न-भिन्न उन दोनों में कार्य-कारणभाव का अभाव होने से आश्रयआश्रयीभाव स्वीकृत नहीं किया गया है । कुंड और बेर के समान । अर्थात् कुंड के अवयव कारण हैं और अवयवी कार्य हैं इसी प्रकार से बेर के अवयव कारण हैं और अवयवी कार्य हैं इस तरह से कुंड और बेर अपने-अपने स्वरूप से कार्य-कारणरूप से निष्पन्न हुये हैं जैसे उनमें आश्रय-आश्रयीभाव पाया जाता है वैसा इस प्रकृत में नहीं है । यदि दूसरा पक्ष लेवें कि वस्तु से उसकी स्थिति अभिन्न रूप है और वह स्थिति, हेतु से की जाती है तो यह पक्ष भी श्रेयस्कर नहीं है। क्योंकि वह स्थिति हेतु व्यर्थ हो जाता है यदि कहो कि जो स्थिति स्वभाव वाली वस्तु है उसकी स्थिति की जाती है तब तो उसके कारणों की उपरति ही नहीं हो सकेगी और स्वयं जो स्थिति स्वभाव वाली नहीं है उस वस्तु की स्थिति को करना ही असंभव है। अर्थात यहाँ पर भी दो पक्ष उठाये गये हैं कि स्थिति स्वभाव सहित वस्तु की स्थिति की जाती है या स्थिति स्वभाव रहित वस्तु की? प्रथम पक्ष में तो स्थिति स्वभाव सहित की स्थिति क्या होगी? जबरदस्ती मानों तो कभी भी उसके कारण खतम नहीं होंगे और द्वितीय पक्ष में स्थिति स्वभाव रहित वस्तु को स्थिति कैसे हो सकेगी? जैसे कि उत्पत्ति स्वभाव से रहित खर शृंग आदि की उत्पत्ति का अभाव ही है। । अत्राह योगादिः प्रतिवादी कस्यचित् स्थितिसंयोगात्तस्य वस्तुनः स्थाणुत्वं घटते इति चैन्न । कस्मात् स्थितिस्थितिमतो: कार्यकारणभावो न संभवति यत: पुनः कस्माधुगपतत्वात् तयोः स्थिति स्थितिमतोः अहसभावे सति स्थिते: प्राककरणेवस्तुनः अस्थिति प्रमजति पुन: वस्तुनः सकाशात्पश्चात्कालं स्थितेः करणे सति आश्रयत्वाभावः अनुषजति अत्राह प्रतिवादी योगादिः कश्चित् । दि० प्र०। 2 वस्तुनः । ब्या० प्र० । 3 वस्तुनः । ब्या० प्र० । 4 पर आह स्थितिस्थितिमतोराश्रयाराश्रयीभावो नाम संबंधोस्तीति चेत् न कस्मात्तयोः सर्वथाभिन्नयोः कार्यकारणत्वाभावे सति आश्रयाश्रयीभाव: अभ्युपगम्यते परैः यतः । कोर्थः कार्यकारणं विना आश्रयाश्रयीभावो न घटते यथा कृण्डवदराणाम् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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