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________________ १३० ] अष्टसहस्री [ तृ० प० कारिका ४१ भासमानाः शक्तय इति वक्तुमशक्तेः क्षणक्षयस्वर्गप्रापणशक्त्यादीनामपरमार्थसत्त्वप्रसङ्गात् । क्षणक्षयादीनां प्रत्यक्ष प्रतिभातानामेव विपरीतारोपव्यवच्छेदेनुमानव्यापाराददोष इति चेत्तहि नानाकार्यजननशक्तीनामपि प्रत्यक्षेवभातानामेव समारोपव्यवच्छेदे कार्यानुमानव्यापारात्कश्चिदपि दोषो मा भूत् । नानाकार्यदर्शनात्तजननशक्तिरेका तादृश्यनुमीयते, न पून नाशक्तय इति चेहि नानारूपादिज्ञाननि सभेदात्तादृर्शकस्वभावो द्रव्यस्य व्यवस्थाप्येत, न पुनर्नानारूपादय इति समः समाधिः । प्रदीपक्षणस्यैकस्य वर्तिकामुखादिसहकारिहैं तो उनमें कौन सा सम्बन्ध है ? जो यह बतला सके कि ये रूपादि इस द्रव्य के हैं, यदि उपकार्यउपकारक सम्बन्ध मानों तो पूर्वोक्त ही सारे विकल्प उठते रहेंगे तब द्रव्य के रूपादि भी सिद्ध नहीं होंगे। एवं निर्विकल्पज्ञान में प्रतिभासमान रूपादि परमार्थ सत् हैं किन्तु अनुमान ज्ञान में प्रतिभासमान शक्तियाँ परमार्थसत् नहीं हैं।" आपको ऐसा कहना भी शक्य नहीं है अन्यथा क्षण क्षय और स्वर्ग प्रापणशक्तियों को भी अवास्तविकरूप होने का प्रसग आ जायेगा । अर्थात् क्षण में क्षय होना और स्वर्ग को प्राप्त कराने की शक्तियाँ भी अनुमान ज्ञान का ही विषय है पुनः यह सत्य कैसे रहेगी। बौद्ध-क्षण क्षयादिक तो प्रत्यक्ष म ही प्रतिभासित होते हैं फिर भी उनमें विपरोत आरोप का व्यवच्छेद करने के लिये अनुमान का व्यापार होता है इसलिये कोई दोष नहीं है अर्थात् क्षणक्षय आदि तो प्रत्यक्ष ज्ञान में ही झलकते हैं फिर भी उनमें क्षणि कपने से विपरीत नित्यपने का भ्रम हो जाता है इस विपरीत अभिप्राय को दूर करने के लिये ही अनुमान का प्रयोग होता है अतः इन क्षणक्षयादि का अनुमान से जानने पर भी ये असत्य नहीं हैं। जैन-तब तो नाना कार्य (वर्तिका, दाह आदि) को उत्पन्न करने वाली शक्तियां भी प्रत्यक्ष में अवभासित ही होती हैं उनमें जो शक्ति का अभावरूप समारोप है उसका व्यवच्छेद करने के लिये ही कार्यानुमान का व्यापार होता है इस मान्यता में भी कोई दोष नहीं आवे । बौद्ध-कार्य अनेक देखे जाते हैं अतः अनेक कार्य को उत्पन्न करने वालो वैसी शक्ति एक ही है ऐसा अनुमान से जाना जाता है किन्तु नाना शक्तियाँ नहीं जानी जाती हैं । जैन-तब तो नाना रूपादि ज्ञान का प्रतिभास भेद होने से उस प्रकार के रूप, रस आदि अनेक ज्ञानरूप कार्य को उत्पन्न करने में समर्थ कोई एक ही स्वभाव उस द्रव्य में (ककड़ी आदि) व्यवस्थापित करना चाहिये, न कि नाना रूपादि को भी व्यवस्थापित करना । इस प्रकार से समान ही समाधान है। अर्थात् ककड़ी में अनेक रूप, रस, गंध आदि भेदों का ज्ञान होता है उस अनेक प्रकार के ज्ञान में कारणभूत कोई एक ही स्वभाव उस ककड़ी में है अनेक रूप रसादि भेद उस ककड़ी में नहीं है ऐसा आपको मान लेना चाहिये। किंतु आप बौद्ध रूप आदि को भिन्न-भिन्न ही मान 1 अन्यथा । ब्या० प्र० । 2 वक्त शक्यते चेत्तदा इति सबंध: कार्यः। दि० प्र०। 3 अत्राह सौगत: प्रत्यक्षज्ञाने क्षणक्षयादीनां प्रतिभासितानामेव चिरस्थायिस्थललक्षणविपरीतज्ञानविनाशार्थ अनुमान व्यापागे घटते न कोपि दोष: इति चेत् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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