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क्षणिक एकांत में दूषण ]
तृतीय भाग
[ १२६
तदानवस्था, अपरापरार्थान्तरशक्तिपरिकल्पनात् । तस्य शक्तिभिरुपकारेऽनेकोपकार्यरूपतापत्तिः । तदुपकार्यरूपाणां ततो भेदे तस्यानुपकारात्तव्यपदेशानुपपत्तिस्तदवस्था । तैस्तस्योपकारकरणेनवस्थितिरेव परापरोपकार्यरूपपरिकल्पनात् । शक्तिमतः शक्तीनामनर्थान्तरभावे शक्तिमानेव, न शक्तयो नाम अन्यत्रातव्यावृत्तिभ्यः13 कल्पिताभ्यः' इति चेन्न, रूपादीनामपि द्रव्यादर्थान्तरानर्थान्तरभावविकल्पयोरघटनात् परमार्थसत्त्वाभावानुषङ्गात् प्रकृतदोषोपनिपाताविशेषात्, प्रत्यक्षबुद्धौ प्रतिभासमाना रूपादयः परमार्थसन्तो न पुनरनुमानबुद्धौ प्रति
तब तो यह बतलाइये कि शक्तिमान के द्वारा उन शक्तियों का उपकार किया जाता है। अथवा शक्तियों के द्वारा शक्तिमान का उपकार किया जाता है इस तरह से दो विकल्प के होने पर प्रथम विकल्प को क्षित करते हैं ।
यदि आप कहें कि शक्तिमान के द्वारा भिन्न-भिन्न शक्तियों से शक्तियों का उपकार किया जाता है तब तो अनवस्था दोष आ जाता है क्योंकि अपर-अपर-भिन्न-भिन्न शक्तियों की कल्पना करनी पड़ेगी।
और यदि दूसरा विकल्प ग्रहण करें कि उस शक्तिमान का शक्तियों के द्वारा उपकार किया जाता है तब तो उस शक्तिमान् के अनेक उपकार्यरूप होने का प्रसंग आ जाता है । एवं उन अनेक उपकार्यरूपों को उस शक्तिमान से भिन्न मानने पर उनसे उस शक्तिमान् का उपकार न होने से "शक्तिमान् के ये उपकार्यरूप हैं" इस प्रकार का व्यपदेश नहीं होना रूप दोष तदवस्थ ही रहेगा। अर्थात् ऐसा व्यपदेश नहीं हो सकेगा।
यदि उन उपकार्यरूपों के द्वारा शक्तिमान् का उपकार किया जाता है ऐसा मानोगे तब तो अनवस्था ही मौजूद है क्योंकि परापर उपकार्यरूपों की कल्पना करनी पड़ेगी।
यदि शक्तिमान् से शक्तियों को अभिन्न मानोगे तब तो शक्तिमान् ही रहेगा, कल्पित अशक्ति व्यावृत्ति को छोड़कर 'शक्तियाँ' इस नाम से कोई चीज ही नहीं रहेगी अर्थात् बौद्ध के मत में पदार्थ अतपावृत्तिरूप ही हैं अतः अशक्ति से व्यावृत्त शक्तियाँ हैं, इसलिये व्यावृत्तिरूप शक्तियों को छोड़ कर अन्य शक्तियाँ नहीं रहेंगी।
जैन-ऐसा नहीं कह सकते । क्योंकि हम भी आप से ऐसा प्रश्न करेंगे, कि द्रव्य से रूपादि भिन्न है या अभिन्न ? और इन दोनों विकल्पों के होने पर रूपादिकों की भी व्यवस्था घटित नहीं हो सकेगी पुन: वे रूपादि भी परमार्थ सत्-सच्चे सिद्ध नहीं हो सकेंगे । क्योंकि ऊपर में भिन्न और अभिन्न पक्ष में दिये गये सभी दोष इस प्रकरण में भी समान ही हैं अर्थात् यदि द्रव्य से रूपादि भिन्न
1 स्वरूपाणाम् । ब्या० प्र०। 2 अर्थात रानांतरपक्षयोर्व्यपदेशानुपपत्तिरेकत्वं च । दि० प्र० । 3 तासां शक्तीनां व्यावृत्तयः तथा वृत्तयो न तथा वृत्तयः अतद्व्यावृतयः ताभ्यः अतद्व्यावृत्तिभ्यः अपरमार्थभूताभ्यः अन्यत्र कोर्थः ता: वर्जयित्वा अन्या: शक्तयो न इत्युक्त सौगतेन । दि० प्र०।
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