SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षणिक एकांत में दूषण ] तृतीय भाग [ १३१ सामग्रीभेदात् तदाहादिविचित्रकार्यजननं न पुनः स्वभावभेदादिति चेत्तहि कर्कटिकादिद्रव्ये चक्षुरादिसहकारिसामग्रीभेदादूपादिज्ञाननिर्भासभेदो न पुना रूपाद्यनेकस्वभावभेदादिति निश्चीयते । 'युगपदेकार्थोपनिबद्धदृष्टीनामपि भवितव्यमेव प्रतिभासभेदेन, कारणसामग्रीभेदात् । अन्यथा दर्शनभेदोपि मा भूत। न चैवं, प्रत्यासन्नेतरयोर्वेशद्यतरनिर्भासोपलब्धः । सेयमुभयतः पाशारज्जुः सौगतानां, रूपादिज्ञाननिर्भासभेदायूंपादिभेदं व्यवस्थापयतः प्रदीप बौद्ध-प्रदीप क्षण एक है वतिका मुख, तैल शोषण, तमोनिवारण, कज्जल मोचन पदार्थ प्रकाशन आदि अनेक सहकारी सामग्री के भेद से वह एक ही दीपक उन दाहादि विचित्र कार्यों को उत्पन्न करता है किंतु उस में स्वभाव भेद नहीं है। जैन तब तो कर्कटी आदि द्रव्य में चक्ष आदि सहकारी सामग्री के भेद से ही रूपादि ज्ञान का प्रतिभास भेद किंतु रूपादि अनेक स्वभाव के भेद से उनमें भेद नहीं है ऐसा निश्चित करना चाहिये परन्तु आप बौद्ध लोग ऐसा नहीं मानते हैं प्रत्युत उस कर्कटी आदि द्रव्य में रूपादि अनेक स्वभाव भेद स्वीकार करते हैं। युगपत् एक पदार्थ में जिनकी दष्टि लगी हुई है उनको भी प्रतिभास भेद होना ही चाहिये। क्योंकि दूर निकट आदिरूप कारण सामग्री में भेद देखा जाता है अन्यथा-विशद् अविशद् रूप से दर्शन में भी भेद मत होवे। परन्तु ऐसा तो है नहीं अर्थात् दर्शन भेद तो देखा ही जाता है । क्योंकि निकट और दूर से देखने में विशद् और अविशद् रूप भेद देखा जाता है। अतएव बौद्धों के लिये यह दोनों तरफ से ही जाल को रस्सी है। रूपादि ज्ञान के प्रतिभास भेद से रूपादि के भेद को व्यवस्थापित करते हुये आप बौद्ध को एक ही प्रदीप क्षण के अनेक विचित्र-विचित्र कार्य के होने से उस प्रदीप के स्वभाव-शक्ति भेद का प्रसंग प्राप्त होता है। यदि आप उस प्रदीप क्षण में एक स्वभाव की व्यवस्था करते हैं तब तो रूपादि में भी अनेकपने की व्यवस्था नहीं बन पाती है। अतएव आप दोनों तरफ से ही जाल की रस्सी में फंसे हुये हैं ऐसा समझना चाहिये। ___ भावार्थ-बौद्ध कहता है कि एक ककड़ी में रूप रसादि अनेक हैं क्योंकि उनका भिन्नभिन्न ज्ञान हो रहा है किंतु दीपक में अनेक स्वभाव भेद नहीं है तब आचार्य कहते हैं कि यदि आप 1 समकालं एकार्थेनतिकीक्षणे निपतितलोचनानां पुंसां प्रतिभासभेदो कस्मात् चक्षरादिसहकारिसामग्रीभेदात् । अन्यथाभेदाभावे ज्ञानभेदोपि मा भवतू, न चैवं लोकेऽस्ति कस्मात् । प्रत्यासन्तस्य पुंसो व अवैशद्यनिर्भासो दृश्यते यतः । दि० प्र० । 2 चक्षुरादिप्रत्यक्ष । दि० प्र० । 3 अत्राह स्याद्वादी उभयप्रकारेण सौगतःनां सा पूर्वोक्त इयंवक्ष्यमाणा व्यवस्थानाबंधनाथ रज्जुरस्ति। कस्मात् । कर्कटिकादिद्रव्यरूपरसगन्धादिशाननिर्भासभेदादूपादिभेदव्यवस्थापयतः सतः सौगतस्य एकस्य प्रदीपक्षणस्य कार्यनानात्वात् स्वभावभेदत्वं प्रसजतिपुन: कस्मात् तस्य प्रदीपक्षणस्य एकस्वभावत्वं व्यवस्थापयतः सतः सौगतस्य कर्कटिकादिद्रव्ये रूपादिनानात्वस्य व्यवस्थापनं न घटते यतः । दि० प्र०। 4 आकारभेदः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy