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नित्य एकांतवाद का खण्डन एवं क्षणिक एकांतवाद का खण्डन ]
तृतीय भाग [ ११७ 'विनाशप्रतिषेधादित्यनेकान्तोक्तिरन्धसर्पबिलप्रवेशन्यायमनुसरति', स्वदर्शनानपेक्षं यथोपलम्भमाश्रयस्वीकरणात् । तदेवं 'नित्यत्वकान्तवादिनां,
पुण्यपापक्रिया न स्यात् प्रेत्यभावः फलं कुतः ।
बन्धमोक्षौ' च तेषां न येषां त्वं नासि नायकः ॥४०॥ पुण्यपापक्रिया कायवाङ्मनस्कर्मलक्षणा शुभाऽशुभा । सा प्रधाने' तावन्नास्ति, सर्वथा नित्यत्वात्पुरुषवत् । तदभावे पुण्यपापयोः क्रिया उत्पत्तिलक्षणा नास्ति, कारणाभावे
इसलिये जो आपका दर्शन सर्वथा नित्यरूप है उसकी अपेक्षा न करके जिस प्रकार से वस्तु उपलब्ध हो रही है आपने तो उसी प्रकार से उसका आश्रय स्वीकार कर लिया है।
___ इस प्रकार सत् ही उत्पन्न होता है अथवा असत् ही उत्पन्न होता है, या प्रधान विवर्त ही उत्पन्न होता है । ये तीनों ही पक्ष एकांत से सिद्ध नहीं होते हैं।
उत्थानिका-इस प्रकार से नित्यत्वकांतवादियों के यहाँ और भी क्या-क्या सिद्ध नहीं होता है आचार्यवर्य उसी का स्पष्टीकरण करते हैं
नित्यैकांत पक्ष में शुभ अरु, अशुभ क्रिया भी नहिं होवे । नहिं होगा परलोकगमन फिर, सुख-दुःख फल कैसे होवे ।। कर्म बंध अरु मोक्ष व्यवस्था, भी उनके मत में नहिं है।
हे भगवन् ! जिनके तुम स्वामी, नहीं उन्हें सब दुर्घट है ॥४०॥ कारिकार्थ-सर्वथा नित्य पक्ष में पुण्य, पापरूप क्रिया नहीं हो सकती है। उसके अभाव में परलोक एवं सुख दुःखादि फल भी कैसे हो सकते हैं ? हे भगवन् ! जिनके आप नायक-स्वामी नहीं हैं उनके यहाँ बंध और मोक्ष भी नहीं हो सकते हैं ॥४०॥
काय वाङमनस्कर्म लक्षण शुभ, अशुभ क्रिया पुण्य, पाप क्रिया कहलाती है। ये क्रियायें आपके प्रधान में तो है नहीं क्योंकि वह प्रधान भी पुरुष के समान ही सर्वथा नित्य है। उस शुभाशुभरूप परिणाम के अभाव में पुण्य-पाप की उत्पत्ति लक्षण क्रिया भी नहीं हो सकती है क्योंकि कारण के अभाव में कार्य का उदय नहीं होता है।
1 प्रधानरूपेण । ब्या० प्र० । 2 सांख्यः । ब्या० प्र०। 3 अनेकान्तः । दि० प्र०। 4 अग्रे वक्ष्यमाणप्रकारेण । ब्या० प्र०। 5 दूषणमाहुराचार्या: । दि० प्र०। 6 शुभाशुभः । स्वर्गनरकादिः । दि० प्र०। 7 सुखदुःखादिपापपूण्यकार्य द्वे। दि० प्र० । 8 नित्यवादिनां । दि० प्र० । 9 प्रकृती। दि० प्र०। 10 तस्य शुभाशुभयोगस्याभावे पुण्यपापाश्रययोरुत्पत्तिलक्षणाक्रिया न भवति कस्मात्कारणाभावे कार्य नोदेति यतः । दि० प्र० ।
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