SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टसहस्री [ द्वि० प० कारिका ३६ प्यसत् तन्नोत्पद्यते । यथा गगनकुसुमम् । सर्वथाप्यसच्च कार्य कस्यचित् । इत्यनुमानविरोधश्च प्रत्येयः । नापरमेकान्तप्रकारान्तरमस्ति ।। [ सांख्यः प्रधानस्य विवर्त एव मन्यते तस्य निराकरणं । ] तत एव न किंचित्कार्य, केवलं' वस्तुविवर्त' एवेत्येकान्तोस्तीति चेन्न, तस्याप्यसंभवात्, विवर्तादेः पूर्वोत्तरस्वभावप्रध्वंसोत्पत्तिलक्षणत्वात्, तथोपगमे परिणामसिद्धरनेकान्ताश्रयणप्रसङ्गात् । तदेतत् त्रैलोक्यं व्यवतेरपंति नित्यत्वप्रतिषेधात्', अपेतमप्यस्ति पूछते हैं कि इन दोनों को छोड़कर और आपके पास तीसरा क्या उपाय है ? जिसे मानोगे तो सांख्य तीसरी स्वीकृति बता रहा है। [ सांख्य प्रधान की पर्याय ही मान्यता है उसका निराकरण ] सांख्य–सर्वथा सत् और असत् कार्यरूप नहीं है इसीलिये कार्य कुछ है ही नहीं, केवल वस्तुप्रधान की पर्यायें ही हैं और यही एकांत ठीक है । जैन-ऐसा नहीं कहना । वह एकांत भी असम्भव है। क्योंकि विवर्त आदि (पर्याय आदि) पूर्व स्वभाव के प्रध्वंसक और उत्तर स्वभाव की उत्पत्ति लक्षण वाले हैं। और इस प्रकार से पर्याय का लक्षण स्वीकार कर लेने पर तो परिणाम की सिद्धि हो जाने से अनेकांत मत के आश्रयण का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। इसलिये यह त्रैलोक्य-प्रधान, व्यक्ति-महान अहंकार आदि से तिरोभूत होता है क्योंकि महदादि रूप से प्रधान नित्य नहीं माना है। और यह प्रधान अपेत -तिरोभूत होकर भी विद्धमान है क्योंकि विनाश का प्रतिषेध है। इस प्रकार अनेकांतरूप कथन करना तो अध सर्प बिल प्रवेश न्याय का अनुसरण करता है । अर्थात् महान् अहंकार आदि क्रमशः पूर्व पूर्व में लीन होते हुये प्रधान में लीनतिरोभूत हो जाते हैं अत: नित्यत्व का प्रतिषेध है और तिरोभूत होकर के भी वे उसमें हमेशा मौजूद रहते हैं इससे किसी का नाश नहीं होता है इस कथन पर तो जैनाचार्य कहते यह अनेकांत रूप कथन तो बिना इच्छा के भी अंधे सर्प जिस प्रकार से बिल में ही घुसते हैं तद्वत् आप स्याद्वादियों के अनेकांत का ही आश्रय ले लेते हैं।। 1 भाष्योक्तस्य गगनकुसुमवदित्येतस्यविवरणं क्रियते तथा यत्सर्वथेति । दि० प्र० । 2 कार्य सदसदविकल्पद्वयं परित्यज्य अपरं उभयरूपमनुभयरूपं वा एकान्तप्रकारान्तरं नास्ति । भवति चेत्तदासत्कार्यवादिनः सांख्यस्य मतहानिर्भवति= अत्राह सांख्यः यत एवं तस्मात्देवलोके कि कायं नास्ति केवलं वस्तुविवर्तते परिणमति इत्येकांतोऽस्तीति चेत् नाकस्मात् वस्तविवर्त्तते इति लक्षणस्य तस्य एकान्तस्य अघटनात् । विवादिः पूर्वस्वभावप्रध्वंसोत्तरस्वभाव उत्पत्तिलक्षणो यतः । तथा प्रध्वंसोत्पत्यङ्गीकरिष्यते सति परिणाम: सिद्धयति अनेकान्तमताश्रयणमायाति सांख्येति । दि० प्र०। 3 यतः सर्वथा सतोसतश्च कार्यत्वं नास्ति । 5 महदादिरूपेण । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy