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________________ नित्य एकांतवाद का खण्डन एवं क्षणिक एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ ११५ त्वप्रसङ्गात्, यतस्तद्वन्महदादेः सत एव कार्यत्वं सिध्द्येत् । नाप्यसतः, सिद्धान्तविरोधाद्गगनकुसुमादिवत् । "असदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसंभवा भावात् ।। शक्तस्य शक्यकरणात कारणभावाच्च सत्कार्यम् ॥" इति हि सांख्यानां सिद्धान्तः । स चासतः कार्यत्वे विरुध्यते एव । तथा 'यत्सर्वथा क्योंकि चैतन्य भी कार्य नहीं है अन्यथा उस चैतन्य स्वरूप वाला पुरुष भी कार्यरूप हो जायेगा किन्तु वह चैतन्य कार्यरूप नहीं है उसी चैतन्य के समान महान् आदि भी सत् के ही कार्य सिद्ध हो सके, ऐसा भी नहीं है। तथैव असत् भी कार्यरूप नहीं हो सकता है क्योंकि आपके सिद्धांत में विरोध आता है, आकाश पुष्प के समान । क्योंकि आप सांख्यों का सिद्धांत है कि श्लोकार्थ- असत् को न करने से उपादान को ग्रहण करने से, सर्व संभव का अभाव हने से, शक्त-समर्थरूप कार्य को करने से और कारण भाव होने से कार्य सत्रूप है। अर्थात् सत्कार्यवादी सांख्यों का कहना है कि इन पांच हेतुओं से कारण में कार्य सदैव विद्यमान है यह सिद्ध किया जाता है और असत् को कार्यरूप मानने पर यह उपर्युक्त आपका कथन विरुद्ध ही हो जायेगा उसी प्रकार से “जो सर्वथा ही असत् है वह उत्पन्न नहीं हो सकता है, जैसे आकाश पुष्प ।" और आप सांख्यों के यहाँ कार्य सर्वथा भी असत् ही हैं । इस तरह अनुमान से विरोध भी जानना चाहिये। एवं सत् असत् को अन्य और कोई एकांत से प्रकारांतर है ही नहीं। भावार्थ-जैनाचार्यों ने सर्वथा सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद में दुषण दिखा दिया है और 1 असतः अविद्यमानस्य लोके करणं नास्ति, उपादानग्रहणमस्ति सर्वस्य वस्तुन', संभवस्वभावोस्ति, योग्यं वस्तु कत्तुं न शक्यते, कारणभावोस्ति लोके, इति हेतुपञ्चकात् सद्विद्यमान कार्य इति सांख्यसिद्धान्तः । दि० प्र० । 2 कारणात्सर्वस्य कार्यस्य संभवाभावात् । दि० प्र० । 3 कारणस्य । दि० प्र०। 4 कार्यस्य । ब्या० प्र० । 5 कारणं बसः । ब्या० प्र० । 6 कारणत्वात् । कारणे कार्य यदि सन्नोत्पद्यते तर्हि तत्कारणमेव न भवेत् घटनिष्पत्ति प्रतितत्वादि वदिति भावः । ब्या० प्र०। 7 असतः अविद्यमानस्य कार्यत्वे सति स च सांख्यसिद्धान्तो विरुद्धधते कथं विवादापन्न कार्य पक्षः नोत्पद्यते इति साध्यो धर्मः सर्वथा असत्वात् यत्सर्वथाप्यसत्तन्नोत्पद्यते यथा गगनकुसुमं । सर्वथाप्यसच्चकार्य तस्मान्नोत्पद्यते = सर्वथा सत् कार्य न भवति चेत्तदा महदादेः कार्यत्वं न घटते । सर्वथा असत्कार्यं न भवति चेत्तदा सांख्यसिद्धान्तो विरुद्धयते । अनुमानञ्च विरुद्धयते । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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