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________________ ११४ ] अष्टसहस्री [ द्वि० ५० कारिका ३६ चिदपूर्वोत्पत्त्यभावे किंचिद्व्यङ्गय कार्यं वा विकार्यमुपपद्यते । न वै किचिद्विरुद्धं कार्यकारणभावाभ्युपगमादित्यनालोचितसिद्धान्तं, कार्यस्य सदसत्वविकल्पद्वयानतिक्रमात् । तत्र, यदि सत्सर्वथा कार्य पुवन्नोत्पत्तुमर्हति । परिणामप्रक्लृप्तिश्च नित्यत्वैकान्तबाधिनी ॥३॥ न तावत्सतः कार्यत्वं चैतन्यवत् । न हि चैतन्यं कार्य, तत्स्वरूपस्य पुंसोपि कार्य सांख्य-हमारे उस नित्यत्व पक्ष में कुछ भी विरोध नहीं आता है क्योंकि कार्य कारण भाव को हमने स्वीकार किया है अर्थात् महान्, अहंकार आदि तो कार्य हैं और प्रधान कारण है इस तरह कार्य-कारण के मानने से कोई विरोध नहीं आता है। जैन-यह आपका अनालोचित सिद्धांत है क्योंकि कार्य तो सत्-असत्रूप इन दो विकल्पों को अतिक्रमण नहीं करता है। उत्थानिका-अब उन्हीं दो विकल्पों में से यदि कार्य को सर्वथा सत्रूप ही माने तो क्या दोष आते हैं इसी का स्पष्टीकरण स्वामी श्रीसमंतभद्राचार्यवर्य स्वयं करते हैं। विद्यमान यदि कार्य हमेशा, कारण क्यों माना जावे। उत्पत्ति के योग्य न आत्मा, वैसे ही घट मत होवे ।। मिट्टी में घट सदा उपस्थित, चक्र दण्ड फिर क्या करते। यदि परिणमन व्यवस्था है फिर, नित्य पक्ष बाधित उससे ॥३६।। कारिकार्थ-यदि कार्य को सर्वथा सत्रूप माना जाये तब तो पुरुष के समान वह उत्पन्न ही नहीं हो सकता है, और यदि परिणमन की कल्पना करें तब तो नित्यत्वकांत में बाधा आ जाती है ।।३६॥ ___अर्थात् जिन महदादि कार्यों की उत्पत्ति सांख्य प्रकृति तत्त्व से मानते हैं वे स्वयं सत् स्वरूप हैं या असत्रूप ? यदि वे कार्य सर्वथा सत्रूप हैं तब तो-चैतन्य के समान सत् के कार्यपना नहीं है 1 जैनः । दि० प्र०। 2 कार्यं यदुत्पद्यते सदुत्पद्यते चेति विकल्पद्वयं कृत्वा प्रथमपक्षः दूषयंतस्तावदाहुः सूरयः समन्तभद्राः। दि० प्र०13 कूटस्थं । दि० प्र०। 4 द्रव्याकारेणेव पर्यायाकारेणापिसत् । दि० प्र०। 5 घटपटादिलक्षणं । दि० प्र०। 6 यथा कूटस्थ: आत्मा सर्वथा सत् नोत्पद्यते तथा कार्यमपि । दि० प्र०। 7 कार्य पक्षः उत्पत्तुं नाहतीति साध्यो धर्मः सर्वथासत्वात् यत्सर्वथा सन्नोत्पत्तुमर्हति यथा चैतन्यं सर्वथासच्चेदं तस्मान्नोत्पत्तुमहंति = अत्राह परः चैतन्यं कार्य एव इत्युक्त जैनः आह चैतन्यं कार्य न हि । चैतन्यस्वरूपस्य पुरुषस्यापि कार्यत्वमायाति = तद्वत्पुंवत्सत एव महदादे: कार्यत्वं यतः कुतः सिद्धयत अपितु न सिद्धयेत् कथं महदादिकं पक्षः कार्यं न भवतीति साध्यो धर्मः सर्वथा सत्वाद्यथा पुरुषः सत्वं चेदं तस्मान्न कार्यम् । दि० प्र०। 8 योग्यं न भवेत् । दि० प्र०।9 पूनर्वाची। दि०प्र०। 10 नाशिनी । दि. प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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