SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नित्य एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ ११३ नित्यस्यैव' प्रमाणकारकव्यापारविषयत्वविनिश्चयात् । चक्षुरादयो हि स्वार्थं रूपादिकमनभिव्यक्तस्वभावपरिहारेणाभिव्यक्तस्वभावोपपादनेन च व्यञ्जयन्तः स्वयमव्यञ्जकरूपत्यागेन' व्यञ्जकत्वस्वीकरणेन च व्यञ्जकव्यपदेशभाजो दृष्टाः । न चैवं प्रमाणं कारकं च परिष्टं तयोनित्यत्वाभ्युपगमात् । तत्कृतस्य च विषयविशेषविज्ञानादे: शाश्वतत्वान्न किञ्चिव्यक्त्यर्थं पश्यामः, कथंचिदपूर्वोत्पत्तौ तदेकान्तविरोधात् । न ह्यनेकान्तवादिनस्तव साधोः शासनादबहिविषयविशेषविज्ञानाभिलापप्रवृत्त्यादेरुत्पत्तिः कथंचिदपूर्वा' युज्यते, यतोस्यामभ्युपगम्यमानायां नित्यत्वैकान्तविरोधो न भवेत्, तदभावे विकार्यानुपपत्तेः । न हि कथं जैन -यह कथन भी असम्यक् है क्योंकि सर्वथा नित्यरूप से ही पदार्थ व्यवस्थित नहीं है। किन्तु कथंचित् अनित्य में ही प्रमाण और कारक के व्यापार का विषय होना निश्चित है। __ क्योंकि चक्षु आदि इंद्रियां अनभिव्यक्त स्वभाव का परिहार करके और अभिव्यक्त स्वभाव का उपादान करके ही अपने रूपादि विषय को व्यक्त करती हई स्वयं अव्यंजकरूप स्वभाव का त्याग करके एवं व्यंजक स्वभाव को स्वीकार करके "व्यंजक" इस नाम को प्राप्त होती हुई देखी जाती है। परन्तु इस प्रकार पूर्वाकार का परिहार और उत्तराकार की प्राप्तिरूप से प्रमाण और कारकों को आप सांख्यों ने नहीं माना है क्योंकि आपके यहाँ तो वे दोनों ही सर्वथा नित्य हैं। और उस नित्य के द्वारा किया गया विषय विशेष विज्ञानादि शाश्वत ही हैं अतएव हम अभिव्यक्ति के लिये कुछ भी तो नहीं देख रहे हैं। कथंचित् अपूर्व की उत्पत्ति स्वीकार कर लेवें तब तो एकांत का विरोध हो जायेगा। अर्थात् विषय विशेष जो ज्ञानादि हैं उनकी कथंचित् अपूर्व उत्पत्ति स्वीकार कर लेने पर तो आपका एकांत नित्य पक्ष सिद्ध नहीं होगा क्योंकि अनेकांतवादी आप जिनेंद्र भगवान् के शासन के बाहर सांख्यादि के मत में विषय विशेष के विज्ञान की अभिलाषा से हुई प्रबृत्ति आदि की उत्पत्ति कथंचित् अपूर्व नहीं बन सकती है। जिससे कि इस कथंचित् अपूर्व उत्पत्ति को स्वीकार कर लेने पर नित्यरूप एकांत मत का विरोध न हो जावे । अर्थात् कथंचित् अपूर्व की उत्पत्ति को मान लेने पर तो नित्यत्व एकांत में विरोध आ ही जाता है। और उस अपूर्व उत्पत्ति का अभाव मानने पर तो विकार्य-विविध प्रकार की क्रिया नहीं बन सकती है। क्योंकि कथंचित् अपूर्व उत्पत्ति का अभाव मानने पर व्यंग्य-व्यक्त होने योग्य अथवा कार्यरूप विकार्य नहीं हो सकता है। दि० प्र० । 2 चक्षुरादयः । दि० प्र० । 3 एवमनभिव्यक्त स्वभावपरिहारेणाभिव्यक्तस्वभावोपादानेन च व्यञ्जकरूपं प्रमाणं कारकञ्च सांख्यः प्रतिपादितं न कस्मात्तयोः प्रमाणकारकयोनित्यत्वाङ्गीकरणात् =प्रमाणकृतं विषयविशेषविज्ञानादि । शाश्वतं यतः सांख्यमते ततः कारणात्किञ्चित्कार्यं कारणं व्यक्तिनिमित्तं वयं स्याद्वादिनः न पश्यामः । दि० प्र० । 4 ता । दि० प्र०। 5 आदिशब्देनोत्पत्तिाया। दि० प्र०। 6 नित्य । दि० प्र० । 7 पर्यायस्य न तु द्रव्यस्य । न हीति संबन्धः। दि० प्र०। 8 कूतोऽस्यामपूर्वोत्पत्ती। दि० प्र०। १ तदभावेऽपि कार्यानुत्पत्तेः । इति पा० । न किञ्चिद्वक्तार्थं पश्याम इत्यत्रैव साध्ये । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy