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________________ ११२ ] अष्टसहस्री । तृ० ५० कारिका ३८ प्रसक्तेः । तथा च न व्यक्तं प्रमाणकारकरभिव्यक्तमिन्द्रियैरर्थवदिति शक्यं वक्तुं, पूर्वमनभिव्यक्तस्य व्यजकव्यापारादभिव्यक्तिप्रतीतेः । [ प्रमाणकारकाणि नित्यानि संतीति सांख्यस्य मान्यतां निराकुर्वति आचार्याः । ] अथ मतं, प्रमाणकारकाणि व्यवस्थितमेव भावं व्यञ्जयन्ति चक्षुरादिवत् स्वार्थम् । ततो न किञ्चिद्विप्रतिषिद्धमिति तदप्यसम्यक्, सर्वथा नित्यत्वेन भावस्याव्यवस्थितत्वात् कथंचिद की अभिव्यक्ति मानने पर हमारे यहाँ विक्रिया का अभाव नहीं है। नित्य होने पर भी उन प्रमाण कारकों के द्वारा अभिव्यक्ति मानी है क्योंकि अभिव्यक्ति में नवीन पदार्थ की उत्पत्ति तो है नहीं कि जिससे विरोध आ सके। ___इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि आपने प्रमाण और कारकों को सर्वथा नित्य माना है अतः वे व्यक्त तत्त्वों को अभिव्यक्त कैसे करेंगे ? क्योंकि ये अपने पूर्व के अनभिव्यंजक स्वभाव का परित्याग करके ही अभिव्यंजक होंगे अर्थात् व्यक्त की अभिव्यक्ति के पहले जो इनमें अनभिव्यंजक स्वभाव था उसको छोड़ेंगे तब अभिव्यंजक होंगे पुनः ये कारक और प्रमाण नित्य कैसे रहेंगे ? और नित्य ही मानों तब तो आपके यहाँ किसी भी प्रकार की विक्रिया नहीं बन सकेगी। जैन-प्रमाण नित्य नहीं है क्योंकि उनके द्वारा की गई अभिव्यक्ति प्रमितिरूप है उससे महान्, अहंकार आदि व्यक्त में नित्यपने का प्रसंग आ जायेगा। अर्थात् प्रमाण ने महान् आदि व्यक्त को अभिव्यक्त किया है अतः ये व्यक्त भी नित्य हो जावेंगे। तथैव कारक भी नित्य नहीं हैं क्योंकि कारकों के द्वारा की गई अभिव्यक्ति उत्पत्तिरूप है। उस अभिव्यक्ति के हमेशा ही होते रहने का प्रसंग आ जायेगा। इसलिये इंद्रियों के द्वारा अपने अर्थ को अभिव्यक्त करने के समान प्रमाण और कारकों से व्यक्त महदादि अभिव्यक्त होते हैं यह कहना शक्य नहीं है क्योंकि पूर्व में जो अनभिव्यक्त है उन्हीं की व्यंजक के व्यापार से अभिव्यक्ति हो सकती है ऐसा प्रतीति में आता है। अर्थात् आपने अभिव्यक्ति को तो नित्य माना है इसलिये उसमें पहले अनभिव्यक्त स्वभाव का अभाव होने से व्यंजक व्यापार का अभाव ही है। [ प्रमाण और कारक नित्य ही हैं इस सांख्य की मान्यता का जैनाचार्य निराकरण करते हैं। ] सांख्य-जैसे चक्ष आदि इंद्रियाँ अपने-अपने विषय को व्यक्त करती हैं तथैव प्रमाण और कारक व्यवस्थित पदार्थ को ही व्यक्त करते हैं इसलिये हमारे यहाँ कुछ भी विरुद्ध नहीं है। 1 महदादि । ब्या० प्र० । 2 अर्थस्य । ब्या० प्र० । 3 व्यापारादिभिव्यक्तिप्रतीतिः । ब्या० प्र० । 4 आहार्हतः । तथा च प्रमाणकारकैः कर्तृभूतः व्यक्त कार्यात्मकं कर्मतापन्नमभिव्यक्त प्रकटितम् । इन्द्रियरों यथा । इति वक्तुं शक्यं न कस्मात् प्रागप्रकटितस्य वस्तुनः प्रकाशकव्यापारादभिव्यक्तिः प्रकटतत्वं प्रतीयते यतः =अथ सांख्यो वदति । प्रमाणकारकाणि विद्यमानमेवार्थ प्रकटयन्ति यथा चक्षुरादि यो रूपादिकं यत एवं ततो व्यवस्थिते वस्तुनि प्रमाणकारकाणि वर्तन्ते किञ्चिद्विरुद्धं न ।= स्याद्वाद्याह हे कपिल यदुक्त त्वया तदसत्यं सर्वथा नित्यो भावः न व्यवतिष्ठेत यतः । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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