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________________ ११८ ] अष्टसहस्री [ द्वि० ५० कारिका ४० कार्यानुदयात् । ततः प्रेत्यभावो जन्मान्तरलक्षणस्तत्फलं च सुखाद्यनुभवलक्षणं कुतः स्यात् ? ततो बन्धमोक्षौ च यथोक्तलक्षणौ न स्तस्तेषां येषां त्वमनेकान्तवादी नायको नासि । इति तात्पर्यार्थः । ततो' नित्यत्वैकान्तदर्शनं नैतत् प्रेक्षापूर्वकारिभिराश्रयणीयं, पुण्यपापप्रेत्यभावबन्धमोक्षविकल्परहितत्वान्नरात्म्यादिवत् । न चैतत् क्वचिदेकान्ते संभवति, कुशलाकुशलं कर्मेत्यत्र तदसंभवस्य समर्थितत्वात् । __ अतएव जन्मांतर लक्षण प्रेत्यभाव और सुखादि के अनुभव लक्षण उसका फल भी कैसे हो सकता है ? एवं उस पुण्य पापादि के अभाव में उनके यहाँ यथोक्त लक्षण बंध और मोक्ष भी नहीं सिद्ध होते हैं, जिन एकांतवादियों के आप अनेकांतवादी नायक नहीं हैं। इस प्रकार से तात्पर्यार्थ हआ। इसलिये यह नित्यत्वैकांत दर्शन प्रेक्षापूर्वकारी विद्वानों के द्वारा आश्रय लेने योग्य नहीं हैं। क्योंकि यह पुण्य, पाप, प्रेत्यभाव, बंध, मोक्षरूप विकल्पों से रहित है, नैरात्म्य आदि दर्शन के समान। ये सभी बातें किसी भी एकान्तवाद में संभव नहीं हैं। "कुशलाकुशलं कर्म" इत्यादिरूप आठवीं कारिका में इनके असंभव का समर्थन किया गया है । अतएव यहाँ पर अधिक विस्तार नहीं किया है। 14त एवं ततः। दि० प्र०। 2 भेद । दि० प्र० । 3 पुण्यादि । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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