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________________ तृतीय भाग नित्य एकांतवाद का खण्डन ] त्कादाचित्कत्वसिद्धेः । धर्मसामान्यस्य तु यथा साधारणत्वं तथा स्वभावसामान्यस्यापि', परिणामादिसामान्यवत् । ततः परिणामादिविशेषाणां स्वभावविशेषपर्यायत्वं परिणामादिसामान्यानां तु स्वभावसामान्यपर्यायता व्यवतिष्ठते ।। [ उत्पादव्ययो एवाविर्भावतिरोभावनामानौ स्तः । ] पूर्वोत्तराकारयोस्तिरोभावाविर्भावौ तु नाशोत्पादावेव नामान्तरेणोक्तौ, सर्वथा तदभावे स्वभावस्यासंभवात् । तदेतद्विनाशोत्पत्तिनिवारणमबुद्धिपूर्वकं प्रत्यक्षादिविरोधात् क्षणिककान्तवत् । नेदमसिद्धं साधनं, 'पुरुषस्योत्पादध्ययध्रौव्यात्मनः स्वसंवेदनप्रत्यक्षात् स्मरणार परिणाम के समान स्वभाव भी कथंचित् कादाचित्क है, यह बात सिद्ध हो गई है। धर्म सामान्य जिस प्रकार से साधारण है उसी प्रकार से स्वभाव सामान्य भी साधारण है परिणामादि सामान्य के समान । इसलिये परिणामादि विशेषों में स्वभाव विशेष पर्यायपना और परिणामादि सामान्य में स्वभाव सामान्य पर्यायपना व्यवस्थित है अर्थात् विशेष परिणाम ही विशेष स्वभाव पर्याय है और सामान्य परिणाम ही सामान्य स्वभाव पर्याय है, यह बात सिद्ध हो गयी। [ उत्पाद व्यय ही आविर्भाव तिरोभाव नाम वाले हैं। ] पूर्वाकार का तिरोभाव और उत्तराकार का आविर्भाव ही नामांतर से कहे गये नाश, उत्पाद हैं अर्थात् आपने उत्पाद, विनाश को ही आविर्भाव तिरोभाव नाम दे दिया है वे तो पूर्वावस्था का नाश करके उत्तरावस्था से उत्पन्न होते हैं इसलिये व्यय, उत्पाद ही हैं। सर्वथा इन नाश, उत्पाद का अभाव मान लेने पर तो स्वभाव ही असंभव हो जाता है। इसलिये विनाश और उत्पत्ति का निवारण करना अबुद्धिपूर्वक ही है-मिथ्याबुद्धिपूर्वक ही है क्योंकि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरोध आता है जैसे कि क्षणिकैकांतवाद में प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरोध आता है। ___ यह हमारा हेतु असिद्ध भी नहीं है क्योंकि उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यात्मक पुरुष, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से जाना जाता है । तथैव स्मरण से प्रत्यभिज्ञान से, तर्क से, अनुमान से, आगम प्रमाण से एवं 1 नाशोत्पादयोः । दि० प्र० । 2 विवर्तादि । ब्या० प्र०। 3 ता । ब्या० प्र०। 4 ननु च स्वभावपरिणामयोरेकोपि पुरुषस्य न कोटस्थग्रहानि, परिणामस्याविर्भावतिरोभावरूपत्वेन नाशोत्पादासंभवादित्याशंक्याह । दि० प्र० । 5 आत्मनः । दि० प्र०। 6 प्रत्यक्षादिविरोधात् । दि० प्र० । 7 पुरुषः पक्ष उत्पादव्ययध्रौव्यत्मको भवतीति साध्यो धर्मः। स्वसंवेदनप्रत्यक्षत्वादित्यादिहेतुभिः = यथा घटादिपुद्गलः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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