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अष्टसहस्री
[ तृ ० ५० कारिका ३७
स्वरूपस्य स्वभावत्वात् । एतेन विवर्तविकारावस्थानां स्वभावपर्यायत्वं व्युदस्तं, विवर्तादीनां कादाचित्कत्वात् । तत एव धर्मविशेषस्य न स्वभावपर्यायत्वम् । धर्मसामान्यस्यापि' साधारणत्वादसत्त्वमेव, शश्वदनपायिनोऽसाधारणस्य स्वरूपस्य स्वभावत्वात् ।' इति कश्चित् सोपि न तत्त्ववित्, 'सततावस्थितस्यकान्ततः कस्यचित्स्वभावस्यासंभवात् । स हि न तावत्सकलप्रमाणेनापरिच्छिद्यमानः प्रतिष्ठामित्ति, अतिप्रसङ्गात् । परिच्छिद्यमानस्तु पूर्वापरिच्छिद्यमानरूपताव्यवच्छेदेन परिणामलक्षणानुसरणात् कथं न स्वभावः परिणाम एव स्याद्यतस्तत्पर्यायो न स्यात् ? एतेन' विवर्तादीनां स्वभावपर्यायत्वमुक्तं, तद्वत्स्वभावस्यापि कथंचि
कथन से "विवर्त, विकार और अवस्था स्वभाव पर्याय हैं" इस बात का भी खण्डन कर दिया गया है । क्योंकि ये विवर्त, विकार आदि कादाचित्क हैं। इसीलिये सुखादि धर्म विशेष स्वभाव पर्याय नहीं हैं। और धर्म सामान्य भी साधारण होने से असतरूप ही हैं, अर्थात् प्रधान आदि में भी सत्त्व, प्रमेयत्व आदि साधारण धर्म विद्यमान हैं इसलिये उनमें स्वभाव पर्याय का असत्व ही है। किन्तु हमेशा अनपायी--नष्ट न होने वाला असाधारणस्वरूप ही स्वभाव है।
जैन-ऐसा कहते हये आप सांख्य भी तत्त्ववित् नहीं हैं क्योंकि एकान्त से सतत् अवस्थायी रूप कोई स्वभाव संभव ही नहीं हैं। कारण सकल प्रमाणों के द्वारा अपरिच्छिद्यमान-नहीं जानने योग्य ऐसा प्रमाणातिक्रांत सतत् अवस्थित कोई स्वभाववादी एवं प्रतिवादियों के यहाँ प्रतिष्ठा को नहीं प्राप्त कर सकता है अन्यथा अतिप्रसंग दोष आ जायेगा। अर्थात् हमेशा एकरूप से अवस्थित कोई भी स्वभाव प्रमाण से सिद्ध नहीं है एवं प्रमाणातिक्रांत वस्तु की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती है।
परिच्छिद्यमान स्वभाव तो पूर्व की अपरिच्छिद्यमान रूप अवस्था का परिहार करके ही परिच्छिद्यमान हुआ है अर्थात् प्रमाणों के द्वारा जाना गया है अतः वह परिणाम के लक्षण का ही अनुसरण करता है तब वह स्वभाव, परिणाम क्यों नहीं हो सकेगा, जिससे कि वह परिणामस्वभाव पर्याय न हो सके ? अर्थात् होगा ही। इसी कथन से विवादिकों को भी स्वभाव पर्याय सिद्ध कर दिया गया है अतः उसी
1 सत्त्वप्रमेयत्व धर्मस्य । ब्या० प्र०। 2 तत्त्वमेव । इति पा० । ब्या० प्र०। 3 अविनाशिनः । ब्या० प्र० । 4 आह स्याद्वादी सोपि सांख्यः स्वभावज्ञो नास्ति कस्मादेकान्ततः सदानित्यस्य वस्तुनः कश्चित्स्वभावो न संभवति यतः=हे सांख्य सहि सदावस्थितस्वभावः । अपरिच्छिद्यमानः परिच्छिद्यमानो वेति विकल्प: तावत्प्रथमतः प्रत्यक्षादिप्रमाणेनाज्ञायमानः सन स्थिति प्राप्नोति । अपरिच्छिद्यमानोपि प्रतिष्ठामियत्ति चेत्तदाऽतिप्रसंग: स्यात् गगनकुसूमादीनामपि प्रतिष्ठा भवतु-परिच्छिद्यमानश्चेत्तदा परिणाम एव स्वभावः कथं न स्यात् । अपितु स्यात् । कस्माप्रागपरिच्छिद्यमानरूपत्वत्यजनेन परिणामलक्षणानुगमनात् यतः कुतः स्वभावपर्यायो न स्यात् । अपितु स्यात् । एतेन परिणामस्य स्वभाव पर्यायत्वस्थापनेन विवर्तादीनां स्वभावपर्यायत्वं प्रतिपादितम् । दि० प्र० । 5 तथावस्थित । इति पा० । कूटस्थत्वेनव्यवस्थितस्य । दि० प्र०। 6 विवादिवत् । दि० प्र०। 7 परिणामस्य स्वभावपर्यायत्वसमर्थनेन । ब्या० प्र०। यथा परिणामादि सामान्यस्य साधारणत्वम् = इति संबन्धः । दि० प्र० ।
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