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________________ नित्य एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ १०७ सिद्धि: ? चेतना पुंसो ज्ञप्तिक्रियेत्यपि न युक्तं', यतस्तत्र ज्ञापकहेतोः प्रमातुः प्रमाणस्य च व्यापारः स्यात् । स्यान्मतं 'न पुरुषलक्षणस्यार्थस्य' किया चेतनाख्योत्पतिप्तिर्वा । किं तहि ? स्वभाव' एव, तस्य सर्वदा तत्स्वभावत्वात् ' इति तदप्यसत्, पुंसः परिणामसिद्धिप्रसङ्गात् । [ परिणामस्वभावयोर्भदोस्तीति सांख्येन मन्यमाने आचार्याः समादधते । ] परिणामविवर्तधर्मावस्थाविकाराणां स्वभावपर्यायत्वात् । ननु च 'स्थितस्य धर्मिणः पूर्वाकारतिरोभावेनोत्तराकाराविर्भावः परिणामः । स कथं स्वभावपर्यायः ? सदावस्थितस्य कारक हेतु, सहकारी हेतु के स्वीकार कर लेने पर तो उस कूटस्थ नित्य पुरुष को अनित्यपने का प्रसंग प्राप्त हो जाता है, पुनः कूटस्थ नित्य की सिद्धि कहाँ रही ? यदि आप कहें कि चेतना पुरुष की ज्ञप्ति किया है, सो भी नहीं कह सकते कि जिससे उस ज्ञापक हेतु का प्रमाता और प्रमाण में व्यापार हो सके अर्थात् नहीं हो सकता है। सांख्य-पुरुष लक्षण अर्थ की चेतना नाम की क्रिया उत्पत्ति अथवा ज्ञप्तिरूप नहीं है। जैन-तो क्या है ? सांख्य-वह चेतना क्रिया तो पुरुष स्वभाव ही है क्योंकि वह कूटस्थ पुरुष सर्वदा उस चेतना क्रिया स्वभाववाला है। जैन-यह कथन भी असत् है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो पुरुष के परिणाम की सिद्धि का प्रसंग आ जायेगा । अर्थात् पूर्व आकार का त्याग करके उत्तर आकाररूप परिणमन करना ही परिणाम है और पुरुष के परिणाम मान लेने पर उसे सुतरां अनित्यत्व सिद्ध हो जायेगा। [ परिणाम और स्वभाव में भेद है ऐसा सांख्य के कहने पर आचार्य समाधान करते हैं। ] क्योंकि परिणाम, विवर्त, धर्म, अवस्था और विकार ये सब स्वभाव पर्याय ही हैं । अर्थात् ये सब स्वभाव के ही पर्यायवाची नाम हैं। सांख्य-स्थित वस्तुरूप जो धर्मी है उसके पूर्वाकार का तिरोभाव होकर उत्तराकार का आविर्भाव होना परिणाम है । वह स्वभाव पर्याय कैसे हो सकता है ? क्योंकि जो सदा अवस्थित स्वरूप है वही स्वभाव कहलाता है। इस तरह से परिणाम और स्वभाव में भेद सिद्ध हो जाता है । पुनः इसी 1 पुंसः कूटस्थत्त्वात् । ब्या०प्र० । 2 सांख्यो वदति हे स्याद्वादिन त्वदीयं मतं स्यादेवं रूपस्यार्थस्य चेतनानामा क्रियाया सा उत्पत्तिरूपा ज्ञप्तिरूपा वा न भवति । अत्र स्याद्वादी पृच्छति । तर्हि किं भवति स्वभाव एव कस्माद्धेतोः तस्य पुरुषस्य नित्यं चेतनास्वभावत्वात् = स्याद्वाद्याह तदप्यसत्यं कस्मात्पुरुषस्य परिणामसिद्धिघटनात् । परिणाम १ विवर्त २धर्म ३भवस्था ४ विकार ५ एषां स्वभावशब्दस्य पर्यायनामत्वात् । दि० प्र०। 3 पुरुषस्य । दि० प्र० । 4 चेतना । दि०प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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