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अष्टसहस्री
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[ तृ० ५० कारिका ३७ प्रत्यभिज्ञानाद्हादनुमानाच्छ ताच्च प्रमाणात् सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणात्प्रतिपत्तेः, विनाशोत्पत्तिरहितस्य जातुचिदप्रतीतेः प्रत्यक्षादिविरोधस्य निश्चयात् । एतेन' क्षणिकैकान्तनिदर्शनस्य साधनविकलता निरस्ता, सर्वथा स्थितिरहितस्य चेतसः प्रत्यक्षादावप्रतिभासनात्तद्विरोधस्य सिद्धे : । साध्यशून्यता' च न संभवति, स्थितिमात्राभिनिवेशस्येव' निरन्वयक्षणिकाभिनिवेशस्यापि मिथ्याबुद्धिपूर्वकत्वात् ।
एतेनाव्यक्तं नित्यमेवेत्यपास्तं', व्यक्तस्यापि नित्यत्वानुषङ्गात् नित्यादव्यतिरिक्तस्याप्यनित्यत्वे' चैतन्यस्याप्यनित्यत्वापत्तेः । सर्वथा व्यक्तस्यापि नित्यत्वे प्रमाणकारकव्यापारविरो. धात्तदप्रमेयमनर्थक्रियाकारि प्रसज्येत ।
सुनिश्चित असंभवद्बाधक प्रमाण से भी जाना जाता है। किन्तु विनाश उत्पत्ति से रहित पुरुष की कदाचित् भी प्रतीति नहीं होती है। क्योंकि उस प्रतीति में प्रत्यक्षादि से विरोध निश्चित है। इसी कथन से हमारा "क्षणिकैकांत दृष्टांत" साधन से विकल भी नहीं है यह बात सिद्ध हो जाती है। क्योंकि सर्वथा स्थिति से रहित बौद्धाभिमत क्षणिक चित्र एवं विज्ञानाद्वैत का स्वरूप प्रत्यक्षादि ज्ञान में प्रतिभासित नहीं होता है। इसलिये उस क्षणिकैकांत का विरोध सिद्ध है। यह दृष्टांत साध्य शून्य भी नहीं है "स्थिति मात्र ही वस्तु है इस प्रकार के अभिप्राय के समान निरन्वय क्षणिक अभिप्राय भी मिथ्याबुद्धिपूर्वक ही है।"
भावार्थ-इसलिये यही मानना ठीक है कि आत्मा आदि पदार्थ कूटस्थ नित्य नहीं हैं क्योंकि कूटस्थ नित्य में कारक आदि का अभाव होने से क्रिया का अभाव सिद्ध है एवं क्रिया कारक के अभाव में प्रमाण और प्रमिति का सद्भाव भी सिद्ध नहीं हो सकता है।
उत्थानिका-इसी कथन से अव्यक्त-प्रधान नित्य ही है इसका खण्डन किया गया है। अन्यथा व्यक्त-महदादि को भी नित्यपने का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा । एवं नित्य से (प्रधान से) अभिन्न को भी (महदादि को भी) अनित्य मान लेने पर नित्य आत्मा से अभिन्न चैतन्य को भी अनित्यपने का प्रसंग आ जाता है और यदि आप सर्वथा व्यक्त को भी नित्य मानते हैं तब तो प्रमाण और कारक के व्यापार का विरोध आ जायेगा पुनः वे व्यक्त महान् आदि अप्रमेय और अनर्थक्रियाकारी हो जावेंगे।
1 नित्यकान्ते प्रत्यक्षादिविरोधादिति साधनसमर्थनेन । ब्या० प्र० । 2 आत्मनो मनसो वा । दि० प्र० । 3 अबुद्धिपूर्वकमिति साध्यं तस्य रहितता नोत्पद्यते । यथा नित्य कान्तस्य । तथा निरन्वयक्षणिकैकान्तस्यापि कस्मात्मिथ्याबुद्धिपूर्वकत्वात्। दि० प्र०। 4 कूटस्थस्येव । दि० प्र० । 5 अन्यथा। ब्या० प्र०। 6 व्यक्तस्य । दि० प्र० । 7 अङ्गीक्रियमाणे । दि.प्र.।8 व्यक्तम् । ब्या प्र०।१चैतन्यस्यात्मनः सकाशादभिन्नत्वात् । दि० प्र०।
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