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अष्टसहस्री
[ तृ० प० कारिका ३७
हेतुत्वात् । न' च चेतना पुंसोर्थान्तरमेव, तस्य तल्लक्षणत्वात् " चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम् ” इति वचनात् । न चानित्या चेतना, नित्यपुरुषस्वभावत्वात् साक्षित्वादिवत्तस्याः, प्रधानस्वभावत्वे पुरुषकल्पनावैयर्थ्यात् तदनित्यत्वप्रसङ्गाच्च सुखादिवत् । न च नित्यायाश्चेतनायाः परस्यार्थक्रियात्वं विरुध्यते धात्वर्थरूपाया: 1 क्रियायाः प्रतिघाताभावात्सत्तावत्' । ततोर्थक्रियास्वभावत्वादात्मनो' वस्तुत्वमेव । न ह्यर्थक्रियाकारणस्यैव' वस्तुत्वमर्थक्रियाया: स्वयमवस्तुत्वापत्तेस्तत्रार्थक्रियान्तराभावादन्यथानवस्थाप्रसङ्गात् । स्वतोर्थक्रियाया वस्तुस्वभावत्वे
अथवा ज्ञप्ति लक्षण क्रिया अर्थक्रिया नहीं है क्योंकि ये तो क्रियायें प्रधान हेतुक हैं एवं वह चेतना पुरुष से भिन्न ही नहीं है किन्तु वह पुरुष का ही लक्षण है "चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपं" हमारे यहाँ ऐसा वचन है ।
तथा च वह चेतना अनित्य भी नहीं है क्योंकि नित्य पुरुष का स्वभाव है जैसे उस चेतना का साक्षित्वादि । अर्थात् प्रधानात्मक कार्य की उत्पत्ति में आत्मा साक्षीरूप से रहता है यह भाव है । यदि आप चेतना को प्रधान का स्वभाव स्वीकार कर लेवें तब तो पुरुष की कल्पना ही व्यर्थ हो जायेगी । एवं सुखादि के समान वह पुरुष अनित्य भी हो जायेगा । तथा नित्यरूप चेतना में हम सांख्यों के यहाँ अर्थक्रिया विरुद्ध भी नहीं है क्योंकि "चेतयते इति चेतना" इस प्रकार से धात्वर्थ रूप क्रिया के प्रतिघात (विरोध) का अभाव है, सत्ता के समान । अर्थात् नित्यरूप सत्ता में अर्थक्रया का विरोध नहीं है "अस्तीति सत्" होनारूप क्रिया मौजूद है । इसलिये अर्थक्रिया स्वभाव वाला होने से आत्मा वस्तु ही है । अर्थक्रिया का कारण ही वस्तु है ऐसा भी नहीं कह सकते अन्यथा अर्थक्रिया स्वयं अवस्तु हो जायेगी क्योंकि उसमें अर्थक्रियांतर का अभाव है, अन्यथा अनवस्था का प्रसंग आ जायेगा । स्वतः अर्थक्रिया को वस्तु स्वभाव मानने पर पुरुष भी स्वतः हमेशा ही अर्थक्रिया स्वभाव वाला होने से नित्य है वह भी वस्तु रूप हो जावे, क्योंकि विक्रिया से रहित होने पर भी उस आत्मा में नित्य - कारकत्व भी घटित हो जाता है ।
जैन - ऐसा कहने वाले आप सांख्य भी परीक्षा में दक्ष बुद्धि वाले नहीं हैं क्योंकि प्रमाण से विरोध आता है । प्रत्यक्ष अथवा अनुमान आदि प्रमाणों से चेतनारूप नित्य अर्थ क्रिया कदाचित् भी अनुभव में नहीं आती है ।
1 चेतनाप्यात्मनोर्थान्तरभूतासत्यात्मनः सकाशाद्भिन्नार्थक्रिया कुतो न जायत इत्याशंकायामाह । ब्या० प्र० । 2 ननु चानित्यत्वेनात्मनोभिन्नायाश्चेतनाया विभिन्नार्थक्रियात्वं कुतो न जायत इत्याशंकायामाह । ब्या० प्र० । 3 यथा साक्षित्वादिकं पुरुषस्वभावत्वादनित्यं न । तथा चेतना च चेतनायाः प्रधानस्वभावत्वे सत्यात्मकल्पना निरर्था तस्याश्चेतनायाऽनित्यत्वप्रसंगश्च यथा सुखदुःखादेप्रधानस्वभावत्वे सत्यनित्यत्वप्रसंग: । दि० प्र० 1 4 समसांख्यस्य । ब्या० प्र० । 5 बाधाभावात् । ब्या० प्र० । 6 धात्वर्थरूपक्रियायाः प्रतिघाताभावान्नित्यायाः सत्याया अर्थक्रियात्वं न विरुद्धयते यथा । दि० प्र० । 7 न केवलमर्थक्रियाकारणस्य वस्तुत्वं किन्त्वर्थक्रियाया अपि वस्तुत्वमितिभावः । ब्या० प्र० ।
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