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________________ नित्य एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ १०५ पुरुषस्यापि स्वतः शश्वदर्थक्रियास्वभावत्वान्नित्यं' वस्तुत्वमस्तु, विक्रियाविरहेपि नित्यकारकत्वस्यापि घटनात् । इति कश्चित् सोपि न परीक्षादक्षधिषणः, प्रमाणविरोधात्, प्रत्यक्षतोनुमानादेर्वा नित्यार्थक्रियायाः कदाचिदपरिच्छेदात् । 'स्वसंवेदनमेव नित्यचेतनार्थक्रियां परिच्छिनत्तीति चेन्न, तथा तबुध्द्यानध्यवसायात्। न हि बुध्द्यानध्यवसितां चेतनां "पुरुषश्चेतयते', "बुद्धिपरिकल्पनावैयर्थ्यप्रसङ्गात् , सर्वस्या शब्दादेविषयस्य बुध्द्यनध्यवसितस्यैव पुंसा संवेद्यत्वसिद्धेः । स्यान्मतं 'न चेतना नाम विषयभूतार्थान्तरं पुंसोस्ति' या बुध्द्याध्यवसीयते'2 तस्यास्तत्स्वरूपत्वात् स्वतः प्रकाशनाच्च' इति तदप्ययुक्तं', 'तदर्थ सांख्य-स्वसंवेदन ही नित्य चेतनारूप अर्थक्रिया को जानता है। जैन-ऐसा नहीं कह सकते। क्योंकि 'नित्य चेतना ही अर्थक्रिया है' इस प्रकार से उस बुद्धि के द्वारा अध्यवसाय नहीं होता है अर्थात् स्वसंवेदन के द्वारा मैं सुखी हूँ अथवा दुःखी हूँ इत्यादि का अनित्य रूप से ही अनुभव होता है न कि नित्यरूप अर्थक्रिया का। क्योंकि बुद्धि के द्वारा निश्चित नहीं को गई चेतना का अनुभव पुरुष नहीं करता है । अन्यथा बुद्धि की कल्पना ही व्यर्थ हो जायेगी। पुनः बुद्धि से अनिश्चित ही सभी शब्दादि के विषयभूत घट पटादि पदार्थ पुरुष के द्वारा जानने योग्य सिद्ध हो जायेंगे, किन्तु आपके यहाँ ऐसा तो है नहीं। आपके यहाँ तो बुद्धि के द्वारा अध्यवसित पदार्थ को ही आत्मा जानती है, अनिश्चित को नहीं जानती है। सांख्य-'चेतना' नाम की चीज पुरुष के विषयभूत से भिन्न हो और बुद्धि के द्वारा उस चेतना का निश्चय किया जावे, ऐसी बात तो है नहीं, क्योंकि वह चेतना तो पुरुष का स्वरूप ही है और स्वतः ही प्रकाशित होती है। _ जैन-आपका यह कथन भी अयुक्त ही है। तब तो उस चेतना में अर्थक्रिया का अभाव हो जायेगा क्योंकि अर्थक्रियावान् का स्वरूप ही सदा अवस्थायी अर्थक्रिया नाम से प्रसिद्ध नहीं है । वह 1 सर्वदा । ब्या० प्र०। 2 अर्थक्रिया । ब्या० प्र०। 3 अपरिज्ञानात् । दि० प्र.। 4 सांख्यः । दि० प्र० । 5 स्वसंवेदनज्ञानेनानिश्चयात् । दि. प्र०। 6 पश्यत्यनुभवतीत्यर्थः । ब्या० प्र०। 7 अन्यथा । ब्या० प्र०। 8 बुद्धधध्यवसितमर्थं पुरुषश्चेतयते । ब्या० प्र० । 9 शब्दादिविषयसंवेदनार्थत्वाद्बुद्धिकल्पनाया न वैयर्थ्यमिति वदन्तं प्रत्याह । ब्या० प्र० । 10 समस्तस्य शब्दविकल्पघटादेरर्थस्य बुध्या कृत्वाऽनिश्चितस्यैव वस्तुनः पुरुषस्य स्वसंवेद्यत्वं सिद्धचति । दि. प्र०। 11 का । दि. प्र.। 12 काकुः । ब्या० प्र०। 13 स्याद्वाद्याह । तदपि सांख्योक्तुमसंगतम् । कस्मात्तस्याश्चेतनायारर्थक्रियात्वाघटनात् । दि० प्र० । 14 चेतनायाः। ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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