SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नित्य एकांतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ १०३ [ सांख्या आत्मानमकर्तारमपरिणामिनं मन्यते किन्तु जैनाचार्यरात्मा परिणामीति साध्यते । ] सोस्त्वकारकोऽविक्रियश्चेति चेत् क्वैव प्रमाणं प्रमितिलक्षणं च तत्फलमुपपद्येत ? प्रमातुरभावे तदसंभवात् । न ह्यकारकः प्रमाता नाम, प्रमितिक्रियासाधनस्य' कारकविशेषस्य स्वतन्त्रस्य प्रमातृतोपपत्तेः । सकलकार्योत्पत्तिपरिच्छित्तिक्रिययोः सर्वथाप्यसाधनस्य सत्त्वासंभवादवस्तुत्वापत्तेः कथमात्मसिद्धिः परस्य स्यात् ? खरविषाणादिसिद्धिप्रसङ्गात् । [ सांख्य आत्मनश्चेतनाक्रियां साधयितुं पूर्वपक्षं विधत्ते । ] ननु चात्मनश्चेतनवार्थक्रिया, न पुनः स्वव्यतिरिक्तकार्यस्योत्पत्तिप्तिर्वा, तस्याः प्रधान [ सांख्य आत्मा को अकर्ता, अपरिणामी मानते हैं, किंतु जैनाचार्य कर्ता और परिणामी सिद्ध कर रहे हैं। ] सांख्य- वह आत्मा अकारक और विक्रिया रहित हो जावे क्या बाधा है ? जैन-तब तो प्रमाण और प्रमिति लक्षण उस प्रमाण का फल कहाँ एवं कैसे होगा? क्योंकि प्रमाता के अभाव में प्रमाण और उसका फल असंभव ही है। एवं जो अकारक है वह प्रमाता नहीं हो सकता क्योंकि जो प्रमिति क्रिया का साधक, स्वतन्त्र कारक विशेष है वही प्रमाता हो सकता है अर्थात् "करोतीति क्रियां निवर्तयतीति कारकः" जो क्रिया को निष्पन्न करे वह कारक है। दूसरी बात यह है कि सकल कार्य की उत्पत्ति लक्षण और परिच्छित्ति-ज्ञप्ति लक्षण क्रियाओं का जो सर्वथा अकारक है उसका सत्व ही न होने से वह अवस्तु रूप हो जाता है पुन: आप सांख्य के यहाँ आत्मा की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? यदि अवस्तु रूप हो जाने पर भी आत्मा की सिद्धि मानों तब तो खर विषाण आदि की सिद्धि का भी प्रसंग आ जायेगा। [ सांख्य आत्मा के चेतना क्रिया सिद्ध करते हुये पूर्वपक्ष रखता है ] ___ सांख्य-आत्मा की अर्थक्रिया चेतना ही है किंतु चेतना से भिन्न कार्य की उत्पत्ति लक्षण 1 एवं कारणकार्यरहिते सत्यात्मनि प्रमाणं क्वार्थानुभवलक्षणं प्रमाणफलं क्व उपपद्यतेऽपितु न क्वापीत्यर्थः । कस्माप्रमातूः पूरुषस्याभावे तयोः प्रमाणप्रमित्योरघटनात् । दि० प्र०। 2 प्रमिणोतीति प्रमाता सा क्रिया नास्ति यतः । ब्या० प्र० । 3 कारकाभावेप्रमातुरभावः कथमित्युक्त आह । ब्या० प्र० । 4 साधकस्य । ब्या० प्र०। 5 यस्तु प्रमितिक्रियासाधकः कारणविशेष: स्वतंत्रः प्रधान: कोर्थः भूतचतुष्टयाद्यनुत्पन्नस्तस्य प्रमातत्वं ज्ञातृत्वमुपपद्यते नान्यस्येत्यर्थः-सकलकार्यस्योत्पत्तिक्रियायाः सकलपरिच्छित्तेप्तिक्रियायाश्च सर्वथाप्यसाधको यः बहिरन्तलक्षणपदार्थः तस्य सत्त्वं न संभवति सत्त्वस्यासंभवे सति किं स्यादिति प्रश्ने। अवस्तुत्वमायाति । एवं सति परस्य नित्यत्वैकान्तस्य वादिनः सांख्यादेः आत्मसिद्धिः कथं स्यात् ? न कथमपि आत्मसिद्धिर्भवति चेत्तदा सकलकार्योत्पत्तिपरिच्छित्तिक्रियारहितस्य खरविषाणादेरपि सिद्धिर्भवतु । सा च न दृश्यत इत्यर्थः। दि० प्र०। 6 असाधकस्य । ब्या०प्र०। 7 साधनस्य । परिच्छित्ति क्रियोत्पादकत्वाभावे आत्माऽस्तीति ज्ञातुमेव न शक्यत इति भावः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy