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________________ अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग [ ६६ धन्यानामादधाना धृतिमधिवसतां मण्डलं जैनमयं । वाचः सामन्तभद्रयो विवधतु विवधां सिद्धिमुद्भुतमुद्राः । १। इत्याप्तमीमांसालङ्कृतौ द्वितीयः परिच्छेदः ।२। अर्थ-अद्वैतादि का आग्रहरूप जो उग्र ग्रह वो ही हई गहन-दुनिवार विपत्ति उसका निग्रह करने में अलंध्य शक्तिशाली एवं स्यात्काररूपी अमोघ मंत्र की विधि का प्रणयन करने वाले, शुद्ध सध्यान-सत्यपरीक्षा में धीर-स्थिररूप, धृति को धारण करने वाले, धन्य-महा पुरुषों के जैन अग्रिममण्डल को धारण करने वालेप्रकट हये हर्ष को प्रदान करने वाले श्रीसमंतभद्रस्वामी के वचन विविध प्रकार की सिद्धि-लौकिक-पारमार्थिक सिद्धि को प्रदान करें ॥१॥ इस परिच्छेद में चौबीसवीं कारिका से सत्ताइसवीं कारिका तक चार कारिकाओं द्वारा अद्वैतमत का निरसन किया है, इसके बाद पाँच कारिकाओं द्वारा योग और बुद्ध के सर्वथा पृथक्त्वमत का खण्डन किया है, उसके अनन्तर चार कारिकाओं से द्वैताद्वैतरूप उभयात्मक-सापेक्ष-अनेकांत का समर्थन किया है और इसमें उसी-उसी जगह सभी के पूर्व पक्ष स्पष्ट करके दिखाये गये हैं। इस प्रकार से तेरह कारिका के विवरणरूप से यह दूसरा परिच्छेद पूर्ण हुआ है। दोहा- द्वैत और अद्वैत के, सब एकांत असत्य । अनेकांत को नित नमूं, जो त्रिभुवन में सत्य ॥१॥ इस प्रकार से आप्तमीमांसालंकार में दूसरा परिच्छेद पूर्ण हुआ। भेदाभेदात्मक वस्तु प्रमाण का विषय है कथंचित् भेदाभेदरूप वस्तु सत्रूप ही है संवृतिरूप नहीं है क्योंकि वह प्रमाण का विषय है अपने इष्टतत्त्व के समान । शून्यवादी बौद्ध के द्वारा कल्पित भेदाभेदरूप उभय तत्त्व सकल धर्म से शून्य संवृत्तिरूप नहीं है। नैयायिकाभिमत, परस्पर निरपेक्ष भेदाभेद विरुद्ध ही हैं क्योंकि वे प्रमाण के विषय नहीं हैं अतः 1 पुंसाम् । 2 उद्भूतां मुदं रान्ति, ददतीति तथोक्ताः। इदं वृत्तं द्वयर्थम् । मन्त्रपक्षे स्यात्कारामोषमन्त्रप्रणयनविधयो वाचः कर्तृ भूताः। 3 अस्मिन् परिच्छेदे चतुर्विंशतितमप्रभृतिसप्तविंशतितमान्ताभिश्चतसृभिः कारिकाभिरद्वतमतं, ततः पञ्चकारिकाभिः योगस्य बुद्धस्य च सर्वथा पृथक्त्वमतं स्पष्टमाक्षिप्य निरसितम् । तदनन्तरं चतसभिः कारिकाभिताद्वैतोभयात्मकः सापेक्षोनेकान्तः समर्थितस्तत्र तत्र सर्वेषां पूर्वपक्षाश्च विशदीकृत्य दशिताः । एवं त्रयोदशकारिकाविवरणरूपेण परिच्छेदोयं समापितोस्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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