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________________ अष्टसहस्री [ द्वि०प० कारिका ३६ चाव्यभिचारित्वं प्रत्यक्षलक्षणमसंभवि स्यात् । न चैतेऽवयवा अयमवायवी समवायश्चायमनयोरिति त्रयाकारं प्रत्यक्षमनुभूयते सकृदपि, यतोसावप्यमूल्यदानक्रयो न स्यात्, प्रत्यक्षबुद्धावात्मानणेन प्रत्यक्षतास्वीकरणाविशेषात् । 'तत एव परस्परभिन्नावयवावयविनामपि प्रत्यक्षे प्रतिभासनादमूल्यदानक्रयिणावुक्तौ समवायवत्' । [ परमाणव एव सद्रूपा न स्कन्धा इति बौद्धन कथितं, जैनाचार्याः समादधते । ] सर्वं' वस्तु क्षणिकपरमाणुरूपं, सत्त्वात्, नित्यस्थूलरूपे' क्रमाक्रमाभ्यामर्थक्रियानुपपत्ते भावार्थ :-एक अवयवी वस्त्र अपने सभी अवयव तन्तुओं से भिन्न है और वे सभी अवयव भी परस्पर में भिन्न हैं। इस प्रकार से सभी तंतुओं से भिन्न यह वस्त्र निर्विकल्पज्ञान में झलकता है यह बात आज तक सिद्ध नहीं हो रही है। उसी प्रकार ये परमाणु निर्विकल्पज्ञान में अपने आकार को झलकाते नहीं हैं फिर भी प्रत्यक्षपने को प्राप्त होना चाहते हैं परन्तु यह बात शक्य नहीं है। वह अवयवी भी सूक्ष्मरूप अपने अवयवों से भिन्न महत्पने से सहित प्रत्यक्षज्ञान में प्रतिभासित नहीं होता है जैसे कि कंडादि से भिन्न दही प्रतिभासित होता है, उस प्रकार से अपने अवयवों से भिन्न अवयवी प्रतिभासित नहीं होता है। नैयायिक-समवाय सम्बन्ध से उन अवयवों से अभिन्न के समान अवयवी प्रतिभासित होता है। जैन-ऐसा नहीं है । अन्यथा अवयवी प्रत्यक्ष को सर्वत्र भ्रांतरूप का प्रसंग आ जायेगा। पुनः उस प्रकार से भ्रांत हो जाने पर अव्यभिचारी प्रत्यक्ष का लक्षण असंभवी दोष से दूषित हो जायेगा क्योंकि ये अवयव हैं, यह अवयवी है तथा इन दोनों में यह समवाय है इस प्रकार ये तीनों आकार एक बार भी प्रत्यक्षरूप से अनुभव में नहीं आ रहे हैं कि जिससे यह अवयवी अमूल्यदानक्रयी न हो जावे अर्थात् है ही है। कारण कि प्रत्यक्षज्ञान में अपने स्वरूप का समर्पण न करके भी प्रत्यक्षता को स्वीकार करना दोनों में ही समान है। उसी हेतु से परस्पर में सर्वथा भिन्न अवयव और अवयवी भी प्रत्यक्षज्ञान में प्रतिभासित नहीं होते हैं इसलिये वे अवयव और अवयवी दोनों ही अमूल्यदानक्रयी हैं जैसे कि समवाय प्रत्यक्ष में प्रतिभासित नहीं होता है फिर भी प्रत्यक्षज्ञान का विषय होना चाहता है, इसलिये वह अमूल्यदानायी है। [ परमाणु ही सत्रूप है, स्कंध असत्रूप है ऐसा बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य समाधान करते हैं। ] बौद्ध-"सभी वस्तु क्षणिक परमाणुरूप हैं, क्योंकि सत्रूप हैं । नित्य और स्थूल रूप में क्रम 1 अवयविनोऽमूल्यदानक्रयित्वसमर्थनादेव । 2 अवयवावयविनौ। 3 समवायो यथा प्रत्यक्षे न प्रतिभासते प्रत्यक्षश्च भवतीत्यमूल्यदानक्रयी। 4 भाष्योक्तादिशब्दगृहीतानुमानादावपि सूक्ष्मस्थूलाकाराः स्थूलसूक्ष्मस्वभावव्यतिरेकेण न प्रतिभासन्ते इति समर्थयमानः परप्रश्नमाह । 5 नित्ये स्थूलरूपे च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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