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________________ अनेकांत की सिद्धि । तृतीय भाग [ ६५ त्र चासन्तमेव स्थलाकारमादर्शयन्ती संवतिस्तान संवणोति 'केशादिभ्रान्तिवदिति चेन्नैवं. बहिरन्तश्च प्रत्यक्षस्याभ्रान्तत्वकल्पनापोढत्वाभावप्रसङ्गात्, संव्यवहारतः परमार्थतो वा प्रत्यक्षं कल्पनापोढमभ्रान्तमिति लक्षणस्यासंभवदोषानुषङ्गात्, परमाणूनां 'जातुचिदध्यक्षबुद्धावप्रतिभासनात् । ते इमे परमाणवः प्रत्यक्षबुद्धावात्मानं च न समर्पयन्ति प्रत्यक्षतां च स्वीकर्तुमिच्छन्तीत्यमूल्यदानक्रयिणः स्वावयवभिन्नकावयविवत् । न हि सोपि सूक्ष्मस्वावयवव्यतिरिक्तो महत्त्वोपेतः प्रत्यक्षे प्रतिभासते कुण्डादिव्यतिरिक्तदध्यादिवत् । समवायात्तेभ्योनर्थान्तरमिव' प्रतिभासते इति चेन्न, अवयविप्रत्यक्षस्य सर्वत्र भ्रान्तत्वप्रसङ्गात् । तथा अविद्यमानरूप ही स्थूलाकार को दिखाती हुई यह संवति उन परमाणुओं को संवृतरूप कर देती हैढक देती है। जैसे कि केशों के समूह धमिल्ल, जूड़ा आदि में एकत्व प्रतिभासित होता है तथापि परमार्थ से एकत्व नहीं है। उसी प्रकार से ज्ञान में स्थूलाकार दिखते हैं किन्तु वे वास्तविक नहीं हैं अर्थात् हमारा कहना यह है कि स्थूल पदार्थ में जो स्थूलता का ज्ञान हो रहाहै वह भी विभ्रम है और परमाणुओं में तो स्थूलाकार है ही नहीं। अतः स्थूल-स्कंध और परमाणु दोनों जगह वास्तविक स्थूलता नहीं है फिर भी उन स्थूल पदार्थ और परमाणुओं में स्थूल आकार को बतलाने वाली यह संवृति है, यही परमाणुओं के वास्तविक स्वरूप को ढककर उन्हें स्थूल स्कंध बता देती हैं किन्तु वास्तव में प्रत्यक्ष ज्ञान में परमाणु हो झलकते हैं यही बात सत्य है। जैन-ऐसा नहीं कह सकते हैं, क्योंकि इस प्रकार से तो बाह्य प्रत्यक्ष और अंत: प्रत्यक्ष (मानसप्रत्यक्ष) अभ्रान्त एवं कल्पनापोढ से रहित ही हो जायेगे पुनः संव्यवहार से अथवा परमार्थ से भी "कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षं" इस लक्षण में असंभव दोष का प्रसंग आ जायेगा क्योंकि कदाचित् भी परमाणु प्रत्यक्ष बुद्धि में प्रतिभासित नहीं होते हैं अर्थात् आपने जो प्रत्यक्ष का लक्षण किया है कि जो कल्पना से रहित है और भ्रांति से रहित है वह प्रत्यक्ष है यह लक्षण न संव्यवहार से सिद्ध होता है . न परमार्थ से । अतः इसमें असंभव दोष आ जाता है और जब प्रत्यक्षज्ञान का लक्षण ही सिद्ध नहीं है तब उसमें परमाणु झलकते हैं यह बात भी वैसी ही है कि जैसे वंध्या का पुत्र आकाश पुष्पों की माला पहने हुये है। ये परमाणु प्रत्यक्षज्ञान में अपना समर्पण नहीं करते हैं किन्तु प्रत्यक्षता को स्वीकार करने की इच्छा करते हैं, इस प्रकार से तो ये अमूल्यदानक्रयी हैं अर्थात् मूल्य अर्पण के बिना ही वस्तु को ग्रहण करने वाले हैं जैसे कि अपने अवयवों से भिन्न एक अवयवी सिद्ध नहीं है। 1 परमाणून् । 2 केशधम्मिल्लादिवत् । यथा केशानां समूहे एकत्वं प्रतिभासते तथापि परमार्थत एकत्वं नास्ति । 3 बहिः प्रत्यक्षं घटोयमिति । अन्तःप्रत्यक्षं मानसम् । 4 निर्विकल्पकप्रत्यक्षज्ञाने। 5 मूल्यार्पणमन्तरेण ग्राहिणः । 6 एकोवयवी तन्वादिः । स्वावयवभिन्नकावयविनोन प्रत्यक्षबूद्धावात्मानं समर्पयन्ति प्रत्यक्षतां च स्वीकर्तमिच्छन्ति यथा। 7 यथा कृण्डादिव्यतिरिक्त दधि प्रतिभासते तथा स्वावयवव्यतिरिक्तोवयवी न प्रतिभासते । व्यतिरेके उदाहरणमिदम । 8 कश्चित्सरः। 9 अवयवेभ्यः । 10 अवयवी। 11 अवयविष। 12 अवयवभिन्नस्याभेदेन ग्रहणमिति भ्रान्तत्वम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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