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________________ २] अष्टसहस्री [ द्वि० प० कारिका ३६ योप्याह' भेद एव परमार्थसन्नर्थानां नाभेदस्तस्य संवृतिसत्त्वादन्यथा विरोधादिति । अभेद एव तात्त्विको भावानां न भेदस्तस्य कल्पनारोपितत्वादन्यथा विरोधानुषङ्गादिति चापरः । तौ प्रति सूरयः प्राहुः । - प्रमाणगोचरौ सन्तौ भेदाभेदौ न संवृती | तावेकत्राविरुद्धौ ते' गुणमुख्यविवक्षया ॥३६॥ अभेदस्तावत्सन्नेव न पुनः संवृतिविषय : ' प्रमाणगोचरत्वादभेदवत् । भेदः सन्नेव न पुनः संवृतिः प्रमाणगोचरत्वादभेदवत् । भेदाभेदौ सन्तावेव न पुनः संवृती, प्रमाणगोचरत्वात्स्वेष्टतत्त्ववदित्यपि पक्षान्तरमाक्षिप्तं ' लक्ष्यते, तदुभयसंवृतिवादिनोपि सकलधर्मविधुरत्व उत्थानिका - बौद्ध कहते हैं कि पदार्थों का भेद ही परमार्थ सत् है अभेद नहीं क्योंकि वह अभेद संवृति से सत् है अर्थात् भिन्न-भिन्न पदार्थ ही सत्रूप हैं अभिन्न पदार्थ नहीं क्योंकि एकत्वरूप पदार्थ संवृत्ति से सत्रूप माने गये हैं वास्तव में वे असत् रूप ही हैं, अन्यथारूप से विरोध पाया जाता है | अद्वैतवादी कहते हैं कि पदार्थों का अभेद ही तात्त्विक है भेद नहीं क्योंकि वे भेदकल्पना से किये गये हैं, अन्यथा विरोध का प्रसंग आ जाता है। इन दोनों के प्रति स्वामी श्रीसमंतभद्राचार्यवर्य कहते हैं सत्यज्ञान के गोचर होते, अस्तिरूप हैं भेद अभेद । कल्पितरूप नहीं हैं, क्योंकि, ये प्रमाण के विषय जिनेश । एक वस्तु में मुख्य गौण से, दोनों रहते अविरोधी । जिसकी जहाँ विवक्षा हो वह, मुख्य दूसरा गौण सही ।। ३६ ।। कारिकार्थ — ये दोनों भेद और अभेद प्रमाण के विषय होने से सत्रूप हैं - वास्तविक हैं, संवृतिरूप - काल्पनिक नहीं हैं । हे भगवन् ! आपके शासन में ये भेदाभेद एक ही जीवादि वस्तु में गौण और मुख्य की विवक्षा से विरोध रहित हैं || ३६ || "अभेद सत्रूप ही है, संवृति का विषय नहीं है क्योंकि वह प्रमाण का विषय है, जैसे कि भेद ।” “भेद सत्रूप ही हैं, संवृतिरूप नहीं हैं क्योंकि वे प्रमाण के विषय हैं, जैसे कि अभेद ।” "भेदाभेद सत्रूप ही हैं, संवृतिरूप नहीं हैं, क्योंकि वे प्रमाण के विषय हैं, अपने इष्टतत्त्व के समान ।" यह पक्षांतर भी उन संवृतिवादियों के प्रति आक्षेपरूप समझना चाहिये । क्योंकि भेदाभेदरूप Jain Education International 1 बोद्धः । 2 एकत्र वस्तुनि | 3 अद्वैती । 4 पारमार्थिको । 5 भगवतः । 6 संवृतिः कल्पना | संवृती इति वदतोपि वादिनः । For Private & Personal Use Only 7 भेदाभेदी www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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