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________________ अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग [ ६३ मनुमन्यमानस्य' भावात् । न चात्र' साध्यसाधनधर्मविकलमुदाहरणं, भेदाभेदतदुभयानुभयकान्ताभिधायिनां तत्प्रसिद्धः स्याद्वादिवत् । तथैकत्र' वस्तुनि भेदाभेदौ परमार्थसन्तौ ते भगवतो न विरुद्धौ प्रमाणगोचरत्वात्स्वेष्टतत्त्ववत् । इति सामर्थ्यात् परस्परनिरपेक्षौ' भेदाभेदौ विरुद्धावेव प्रमाणागोचरत्वाइँदैकान्तादिवत् । इति कारिकायामर्थसङ्ग्रहः । [ प्रमाणस्य किं लक्षणमिति प्रश्ने सत्याचार्याः कथयन्ति । ] किं पुनः प्रमाणं यद्गोचरत्वमत्र' हेतुरिति चेत् प्रमाणमविसंवादि ज्ञानमनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वादित्यग्रे वक्ष्यति । अधिगमो हि स्वार्थाकारव्यवसायः । स्वार्थाकारौ च कथंचिद्भेदाभेदौ , तदन्यतरापायेर्थक्रियानुपपत्तेस्तदेकान्ते सर्वथा' तदयोगात् । तदेवं सति भेदउभय को भी संवृतिरूप कहने वाले शून्यवादी बौद्ध सकल धर्मरहित शून्यरूप तत्त्व को स्वीकार करते हैं अर्थात् शून्यवादी बौद्ध वस्तु के भेद-अभेद दोनों धर्मों को संवृतिरूप कह देते हैं। ___ इन तीनों ही अनुमानों में दिये गये उदाहरण साध्य-साधन धर्म से विकल नहीं हैं क्योंकि भेदरूप या अभेदरूप, उभयरूप या अनुभयरूप वस्तु को एकांत से मानने वालों के यहाँ भी ये उदाहरण प्रसिद्ध हैं, जैसे कि स्याद्वादियों के यहाँ प्रसिद्ध हैं। तथा एक ही वस्तु में भेद और अभेद परमार्थ सत् हैं। हे भगवन् ! आपके मत में वे दोनों विरुद्ध नहीं हैं क्योंकि वे प्रमाण के विषय हैं जैसे कि अपना इष्टतत्त्व। इस सामर्थ्य से वे परस्परनिरपेक्ष भेद और अभेद विरुद्ध ही हैं क्योंकि वे प्रमाण के विषय नहीं हैं भेदैकांतादि के समान । इस प्रकार से कारिका में अर्थ का संग्रह है। [ प्रमाण का क्या लक्षण है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य बतलाते हैं। ] शंका-वह प्रमाण क्या है जिस प्रमाण गोचरत्व को यहाँ चारों अनुमानों में हेतु बनाया है ? समाधान-यदि ऐसा प्रश्न है तो हम कहते हैं-"अविसंवादी ज्ञान प्रमाण है क्योंकि वह अनधिगत-अपूर्व अर्थ का अधिगम-निश्चय कराने वाला है।" इस प्रकार से आगे कहेंगे। स्वार्थाकार व्यवसाय को अधिगम कहते हैं। कथंचित् भेदाभेद स्वार्थाकार हैं क्योंकि इन दोनों में से किसी एक का अभाव करने पर अर्थक्रिया नहीं बन सकती है अतः एकांत में क्रम से अथवा युगपत् अर्थक्रिया का भाव है अर्थात पर्याय की अपेक्षा से भेद एवं द्रव्य की अपेक्षा से अभेद स्वार्थाकार हैं। इस प्रकार से होने पर यह प्रमाण भेद अथवा अभेद को या एक-दूसरे की अपेक्षा से रहित दोनों को विषय नहीं करता है अर्थात् सौगत सर्वथा भेद को अद्वैती सर्वथा अभेद को, और योग परस्पर निरपेक्ष दोनों को ___1 शून्यबादिनः सौगतस्य । 2 त्रिष्वप्यनुमानेषु । 3 अनुमानत्रयसद्भावप्रकारेण । 4 नैयायिकाभिमती । 5 अनुमान चतुष्टये। 6 अनधिगतः, अपूर्वः । अर्थः स्वार्थः । अधिगमो व्यवसाय: (निश्चयः)। 7 पूर्वोक्तं स्पष्टीकरोति । 8 पर्यायापेक्षया भेदोभेदस्तु द्रव्यापेक्षया। 9 क्रमेण योगपद्येन वा। 10 भेदाभेदयोः स्वार्थाकारत्वप्रकारेण । 11 सौमतस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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