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________________ अनेकांत की सिद्धि 1 तृतीय भाग [ ७७ रम्भकावयवैर्वा घटादिवत्' औलूक्यानाम् । सत्त्वादिभिः प्रधानवद्वा कापिलानाम् । तादृशं हि साधनं' स्वार्थक्रियायाः क्षीराद्याहरणादिकाया महदादिसृष्टिरूपाया वा स्वविषयज्ञानजननलक्षणाया वा सिद्धमेव । तदन्तरेणापि पाठान्तरमिदं बहु संगृहीतं भवति, कारिकायां स्वभेदैः साधनं यथेत्यत्र साधनशब्देन साधनसामान्यस्याभिधानात् स्वभेदशब्देन च तत्सामान्यस्य वचनात् । यथायोगं विशेषव्याख्यानादिष्टविशेषसिद्धेर्बहुसंग्रहः । । हैं, सौगत में शून्यवादी हैं, नैयायिक में अक्षपाद, जैनमत में स्याद्वादिक, चार्वाक में लोकायतिक, नास्तिक में वृहस्पति माने हैं। या जैसे कपिल के अनुयायियों के यहाँ परस्पर सापेक्ष सत्त्व, रजः, तम से एक प्रधानरूप वस्तु सिद्ध है "क्योंकि अपनी अर्थक्रिया को करने वाले हेतु वैसे ही होते हैं।" जो परस्पर सापेक्ष साधन हैं वे घटादि की क्षीरादि आहरण लक्षण स्वार्थक्रिया को सिद्ध ही करते हैं अथवा एकरूप प्रधान से महान् अहंकार आदि की सृष्टि रूप स्वार्थक्रिया को भी सिद्ध करते हैं या अद्वैतकांत की स्वविषय में ज्ञान जनन लक्षण अर्थक्रिया पाई ही जाती है। भावार्थ---अद्वैतेकांतवादी तो चित्राद्वैत, ज्ञानाद्वैत, ब्रह्माद्वैत आदिरूप से तत्त्व को एक रूप ही मानते हैं फिर भी उसमें अनेक भेद पाये जाते हैं जैसे कि चित्रज्ञान में नीले, पीले आदि अनेक प्रतिभास भेद मौजूद ही हैं। तथैव विज्ञानाद्वैत में वेद्य-वेदकाकार भेद है हो हैं एवं ब्रह्माद्वैत में विद्या अविद्या रूप भेद है ही है । वे लोग भी स्वयं इन भेदों को किसी न किसी प्रकार से स्वीकार भी करते हैं। उसी प्रकार से अनेक परमाणुरूप अवयवों से घटादिरूप एक वस्तु बनती है और सत्त्वादि गुणों से एक प्रधान होता है । अनेक में एक की कल्पना और एक में अनेक की कल्पना तो सभी ने किसी न किसी प्रकार से स्वीकार कर ही ली है एवं हेतु में भी पक्ष धर्मादि अनेक गुण हैं तथैव प्रत्येक जीवादि कथंचित् द्रव्य की अपेक्षा से एकत्व एवं अभेदरूप हैं तथा वे ही वस्तु पर्यायों की अपेक्षा से कथंचित् पृथक्त्व और अनेकरूप भी हैं क्योंकि सापेक्षनय ही वस्तुभूत हैं अन्यथा अवस्तु हैं । "उदाहरण के बिना भी यह पाठांतर बहु संगृहीत होता है।" कारिका में "स्वभेदैः साधनं यथा" इस प्रकार से यहाँ साधन शब्द से साधन सामान्य का कथन किया गया है और "स्वभेद" शब्द से उसके सामान्य का वचन है यथायोग्य विशेष व्याख्यान से इष्ट विशेष की सिद्धि होती है इसलिये बहुसंग्रह किया गया है। 1 घटादिविशिष्टम् । दि० प्र०। 2 वैशेषिकादीनां यथा घटादिसाधनं मृद्रव्यादिपरिणतपुद्गलपरमाणुलक्षणः स्वारम्भकावयवैविशिष्टं क्षीराद्याहरणादिकाद्यास्वार्थ क्रियायाः साधकं सिद्धमेव । अथवा कापिलानां सांख्यानां यथा प्रधानं साधनं सत्त्वरजस्तमोलक्षणः स्वभेदविशिष्टं सत् महदादिसष्टि रूपायाः स्वविषयज्ञानजननलक्षणाया वा स्वार्थक्रियायाः साधकमेव । दि० प्र०। 3 साधकम् । दि० प्र०। 4 संवेदनं घटादिकञ्च । ब्या०प्र.।.5 भेदः । दि० प्र०। 6 इष्टविशेषः सिद्धयत्यतो बहुसंग्रहः कृत आचार्यः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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