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________________ अष्टसहस्री । द्वि० प० कारिका ३३ सपक्षे एव भावो विपक्षेऽभावनिरपेक्षो विपक्षेऽभाव एव वा सपक्षे भावानपेक्षः साधनवस्तुनो रूपं परेषां' सिद्धं येन साध्यसाधनविधुरमुदाहरणं' स्यात् । स्वभेदैर्वा संवेदनवत् । न हि हेतुमनिच्छतः संवेदनाद्वैतं पुरुषाद्वैतं वा स्वीकुर्वतोपि चित्रसंवेदनं नीलादिनिर्भासैरद्वयसंवेदनं वा ग्राह्यग्राहकाकारविवेकसंविदाकारैः परमब्रह्म वा 'तेजःशब्दज्ञानज्योतिराकारैर्विद्येतराकारैर्वा स्वभेदैः परस्परनिरपेक्ष विशिष्टं' वस्तु सिद्धं येनोदाहरणमनवद्यं न स्यात् । स्वा और एकत्व पृथक्त्व सापेक्ष है क्योंकि हेतु का सपक्ष में रहने रूप जो भाव है वह भाव सपक्ष में ही रहे एवं विपक्ष में जो असत्त्व है उससे निरपेक्ष हो अथवा विपक्ष में नहीं रहने रूप जो असत्त्व है वह असत्त्व विपक्ष में ही रहे सपक्ष में रहने रूप भाव की अपेक्षा न करे। इस प्रकार से सपक्ष में रहने रूप भाव और विपक्ष से व्यावृत्ति रूप अभाव हेतु के ये दोनों रूप अन्यवादियों के यहां भी परस्पर निरपेक्ष सिद्ध नहीं हैं कि जिससे यह उदाहरण साध्यसाधन से रहित हो सके । अर्थात् यह उदाहरण साध्यसाधन से रहित नहीं है। "अथवा जैसे अपने भेदों से संवेदन का स्वरूप एकरूप सिद्ध है" अर्थात् श्रीअकलंकदेव प्रकारांतर से दृष्टांत को कहते हैं-अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा हेतु को न मानते हुये तथा संवेदनाद्वैत को स्वीकार करते हुये भी बौद्धों के यहाँ नीलादि प्रतिभासरूप परस्पर निरपेक्ष भेदों से विशिष्ट चित्राद्वैतरूप चित्रज्ञान एकत्वरूप से सिद्ध नहीं है क्या ? अर्थात् सिद्ध ही है । अथवा परस्पर निरपेक्ष ग्राह्य-ग्राहकाकार से भेदरूप संविदाकारों से एक निरंश ज्ञानरूप विज्ञानाद्वैत भी उन अद्वैतवादी बौद्धों के यहाँ सिद्ध नहीं है क्या ? या ज्ञानज्योतिरूप आकार भेदों से या विद्या एवं अविद्यारूप परस्पर निरपेक्ष अपने-अपने भेदों से विशिष्ट परमब्रह्मरूप एक तत्त्व की सिद्धि नहीं है क्या? कि जिससे यह हमारा उदाहरण निर्दोष न हो सके अर्थात् हमारा उदाहरण निर्दोष ही है। "अथवा परस्पर सापेक्ष अपने आरंभक अवयवों के द्वारा जैसे औलूक्य वैशेषिकों के यहाँ घटादिरूप एक वस्तु सिद्ध है।" जैमिनीय में मीमांसक हैं, ब्रह्मवादी में वेदांती हैं, वैशेषिक में औलक्य 1 सौगतानाम् । एकान्तवादिनाम् । दि० प्र०। 2 स्वभेदैः साधनं यथा इत्युदाहरणं साध्यसाधनविरुद्धं नास्ति । रहितम् । दि० प्र०। 3 अत्र ये केचन अद्वैतवादिनः साधनं न मन्यन्ते तान् प्रति स्वभेदैः संवेदनं यथा इत्युदाहरणं प्रतिपाद्यम् । अस्यैव प्रपञ्चः क्रियते हेतुमनन्यमानस्य चित्राद्वैतं स्वीकुर्वतः प्रतिवादिनः चित्रज्ञानं परस्परनिरपेक्षः नीलादिनिर्भासः स्वभेदविशिष्टं वस्तु सिद्धं न हि। तथा संवेदनाद्वैतं स्वीकुर्वतः प्रतिवादिनः अद्वयसंवेदनं परस्परनिरपेक्ष: ग्राह्यग्राहकाकारविवेकसंविदाकारैः स्वभेदविशिष्टं वस्तु न हि सिद्धम् । तथा पुरुषाद्वैतं स्वीकुर्वत: प्रतिवादिनः । परमब्रह्म परस्परनिरपेक्षस्तेजः शब्दज्ञानज्योतिराकारः विद्यतेऽनाकारैर्वा स्वभेदैविशिष्टं वस्तुस्वरूपं न हि सिद्धम् । कोर्थः सर्व विरुद्धं वस्तु न भवति । दि० प्र० । 4 विवेको च संविदाकारश्च । दि० प्र०। 5 सर्वप्रकाशः । दि० प्र०। 6 ब्रह्मस्वरूपम् । दि० प्र०। 7 किन्तु परस्परसापेक्षैर्भदैरेवेवंविधवस्तुसिद्धमितिभावः । ब्या० प्र० । 8 इदमुदाहरणं येन केनानवद्यं न स्यादपि त्वनवद्यमेव=स्वभेदैः संवेदनवत् इत्युदाहरणम्। दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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