SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकांत की सिद्धि ] तृतीय भाग [ ७५ द्व्योमकुसुमवत् । सर्वथैकत्वं नास्ति पृथक्त्वनिरपेक्षत्वात्तद्वदिति । अत्र न हेतुद्वयमसिद्धं 'तदेकान्तवादिनां तथाभ्युपगमात् । [ सापेक्षमेवक्यं पृथक्त्वञ्च जीवादिवस्तुनीति साधयन्ति जैनाचार्याः । ] नाप्यनैकान्तिकं विरुद्धं वा, विपक्षवृत्त्यभावात् ।। सापेक्षत्वे हि तदेवैक्यं पृथक्त्वमित्यविरुद्धं कथंचिज्जीवादिवस्तु प्रत्यक्षादिभिरुपलभ्यते न पुनः सर्वथेति सिद्धान्यथानुपपत्तिः, "सपक्षविपक्षयोर्भावाभावाभ्यां साधनवत् । न हि में बहुत से प्रमाणों की प्रवृत्ति होना प्रमाणसंप्लव है। जैन एवं यौगादि इस प्रमाणसंप्लव को मानते हैं अतएव यहाँ पूर्व कारिकाओं द्वारा अर्थ का ज्ञान होने पर भी उसे ही अनुमान का विषय करके जाना है अतः वह अनुमान अप्रमाण नहीं है । तथाहि-"तथाभूत-परस्पर निरपेक्ष रूप पृथक्त्व और एकत्व नहीं हैं क्योंकि एकत्व और पृथक्त्व से रहित हैं जैसे कि आकाश कुसुम आदि।" उसी का स्पष्टीकरण करते हैं- “सर्वथा पृथक्त्व है ही नहीं क्योंकि वह एकत्व से निरपेक्ष है, आकाश कुसुम के समान ।" 'सर्वथा एकत्व नहीं है क्योंकि पृथक्त्व से निरपेक्ष है आकाश कुसुम के समान । इस अनुमान में दोनों ही हेतु असिद्ध" नहीं हैं, क्योंकि एकांतवादियों के यहाँ एकत्वनिरपेक्ष पृथक्त्व और पृथक्त्व निरपेक्ष एकत्व स्वीकार किये गये हैं। अथवा ये हेतु अनैकांतिक और विरुद्ध भी नहीं हैं क्योंकि विपक्ष में इनकी वृत्ति का अभाव है। [ जीवादि वस्तु में परस्पर सापेक्ष ही एकत्व, पृथक्त्व हैं इस बात को जैनाचार्य सिद्ध करते हैं। ] "एव परस्पर सापेक्ष मानने पर वे ही एकत्व, पृथक्त्व धर्म अविरोधी हैं।" इस प्रकार से अविरुद्ध कथंचित् जीवादि वस्तु प्रत्यक्ष आदि से उपलब्ध हो रही हैं। किन्तु “सर्वथा" इस रूप से उपलब्ध नहीं हैं । इस प्रकार से अन्यथानुपपत्ति सिद्ध है। जैसे कि “सपक्ष में सत्त्व और विपक्ष में असत्त्व के द्वारा हेतु सिद्ध है" अर्थात् जीवादि वस्तु कथंचित् एक हैं क्योंकि वस्तुत्व की अन्यथानुपपत्ति है। वे ही वस्तुयें कथंचित् पृथकरूप हैं क्योंकि वस्तुत्व की अन्यथानुपपत्ति है। इस प्रकार से अन्यथानुपपत्ति सिद्ध है । जैसे हेतु का सपक्ष में सत्त्व यह रूप विपक्ष से व्यावृत्ति की अपेक्षा रखता है और विपक्ष से व्यावृत्ति सपक्ष के सत्त्व की अपेक्षा रखती है। तथैव वस्तु का पृथक्त्व धर्म एकत्व सापेक्ष है 1 व्योमकुसुमादिवत् । दि० प्र० । 2 हेतुद्वय । दि० प्र० । 3 कथञ्चित्पृथक्त्वसत्त्वे कथञ्चिदेकत्वसत्त्वे च । ब्या० प्र०। 4 जीवादिवस्तु । ब्या० प्र०। 5 प्रत्यक्षादिभिरुपलभ्यते इत्येतदेव समन्तरोक्तं हेतुत्वेन दृष्टव्यम् प्रागपि कथञ्चिदेकत्वपृथक्त्वप्रत्ययहेतुत्वावयादवसीयत इति प्रत्ययस्य हेतुत्वकथनात् । तस्यान्यथानुपपत्ति सिद्धा तस्याः समनन्तरानुमान द्वयेन समथितत्वात् । दि० प्र०। 6 यथा साधनं सपक्षविपक्षयोः सापेक्षत्वे सति भावाभावाभ्यामविरुद्धं वस्तुप्रत्यक्षादिभिदृश्यते । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy