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अष्ट सहस्री
[ द्वि० ५० कारिका ३३
तत्राप्यन्वयव्यतिरेकयोरनपेक्षयोरवस्तुरूपत्वात् साधनलक्षणत्वायोगात् सापेक्षयोरेव तल्लक्षणत्वेन वस्तुस्वभावत्वसिद्धेः साम्यमुदाहरणस्य प्रतिपत्तव्यम् । किं पुनरनया कारिकया करोत्याचार्यः ? पूर्वेणैवास्यार्थस्य गतत्वादिति चेत्, एकत्वपृथक्त्वे नंकान्ततः स्तः प्रत्यक्षादिविरोधादिति स्पष्टयति' , गतार्थस्याप्यनुमानविषयत्वप्रदर्शनात्स्पष्टत्वप्रसिद्धेः', प्रमाणसंप्लववादिनां गृहीतग्रहणस्यादूषणात् । तथा हि। थक्पृत्वैकत्वे' तथाभूते न स्ताम् , एकत्वपृथक्त्वरहितत्वाद्वयोमकुसुमादिवत् । तथा हि । सर्वथा पृथक्त्वं नास्त्येव, एकत्वनिरपेक्षत्वाहेतु । तथैव वे ही सापेक्ष जीवादि वस्तु पृथक्-भेदरूप भी हैं क्योंकि कथंचित् भेदरूप से भी प्रतीत हो रही है जैसे सत्त्वादि हेतु। यह अनुमान का क्रम है।
जिस प्रकार से सत्त्वादि हेतु पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्ष से असत्त्व लक्षण भेदों से विशिष्ट अनेकरूप होते हुये भी एक है यह बात वादी और प्रतिवादी दोनों में प्रसिद्ध है । तथैव जीवादि वस्तु भी कथंचित् भेदाभेदरूप ही हैं। __इस हेतु के दृष्टांत में भी यदि परस्पर निरपेक्ष अन्वय-व्यतिरेक हैं तो वे अवस्तुरूप ही हैं क्योंकि उसमें हेतु के लक्षण का अभाव ही है। पुनः यदि वे अन्वय व्यतिरेक परस्पर सापेक्ष हैं तब तो उस हेतु में हेतु का लक्षण घटित होने से वह हेतु वस्तुभूत है यह बात सिद्ध है अतएव यह हमारा उदाहरण साम्य ही समझना चाहिये, विषम नहीं।
प्रश्न-इस कारिका के द्वारा आचार्य क्या कहना चाहते हैं ? क्योंकि पूर्व कारिकाओं द्वारा ही इस अर्थ का बोध हो जाता है अर्थात् 'अद्वैतैकांत पक्षेऽपि' इत्यादि कारिकाओं द्वारा सर्वथा "परस्पर निरपेक्ष पृथक्त्व और एकत्व अवस्तुरूप हैं" ऐसा तो बतलाया ही गया है।
उत्तर-यदि ऐसा कहो तो हम समझाते हैं। एकत्व और पृथक्त्व सर्वथा एकांतरूप से हैं ही नहीं क्योंकि इसमें प्रत्यक्षादि से विरोध आता है इस कारिका द्वारा यह स्पष्टीकरण किया गया है। कारण कि जाने हुये अर्थ को भी अनुमान का विषय प्रदर्शित करने से स्पष्टता प्रसिद्ध ही है। प्रमाणसंप्लववादी हम स्याद्वादियों के यहाँ तो गृहीत-ग्रहण को दूषण नहीं माना है अर्थात् एक प्रमाण
1 सापेक्षयोरेवान्वयव्यतिरेकयोः साधनस्वभावत्वेन कृत्वा वस्तुस्वभावत्व सिद्धयति-स्वभेदैः साधनं यथा इति दृष्टान्तः सम्यग्ज्ञातव्यः = अत्राह कश्चित् श्रीसमन्तभद्राचार्यः अनया कारिकया कि साधनं करोति कस्मात पृथक्त्वैकान्तपक्षेऽपि इत्यादिकारिकाप्रपञ्चेनैव कृत्वा सर्वथा पृथक्त्वैकत्वद्वयं जीवादिवस्तुनि न भवत इत्यस्यार्थस्य निश्चितत्वादिति चेन्न= उत्तरयति । एकस्मिन् जीवादिवस्तुनि सर्वथा पृथक्त्वैकत्वे न भवतः कस्मात्तयोः प्रत्यक्षादिना विरोधोस्ति यत इति स्पष्टीकरोत्याचार्यः । दि० प्र०। 2 साधन । दृष्टान्तेन परं धर्मिणोभेद एवेति कथं साम्यं दार्टान्तिकस्येत्युक्त आह । हेतुना । दि० प्र० । 3 परमार्थ । दि० प्र० । 4 गतमेव । ब्या० प्र०। 5 निश्चितार्थस्याप्यनुमानदर्शनात्स्पष्टत्वं प्रसिद्धयति । दि० प्र०। 6 दूषणत्वात् इति पा० । दि० प्र०, ब्या० प्र० । 7 तथाभूते निरपेक्ष पृथक्त्वेकत्वे पक्षः। नस्त इति साध्यो धर्मः । एकत्वपृथक्त्वरहितत्वात् । दि० प्र०। 8 अत्राप्यनुमानद्वयम् । ब्या० प्र०।
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