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________________ सामान्यवाद का खण्डन ] तृतीय भाग करणमात्रमबाधाकरमेव परेषामनुषज्येत' । सोयं संवृत्त्या विभ्रमकान्तसाधनमविभ्रमदूषणं च प्रत्येतीति परमार्थतो न प्रत्येतीति उपेक्षणीयवचन एव । तमन्येऽद्याप्यनुमन्यन्ते' इत्यचिन्त्यमनल्पतमतमोनिबन्धनमशक्यपर्यन्तगमनमिहाद्भुतम् । अन्यथा परमार्थ को ही "संवृति" यह नामकरण मात्र अबाधितरूप से हम जैनों के यहाँ हो जायेगा अर्थात् परमार्थ को "संवृति" यह नाम रख देने से किसी प्रकार की बाधा नहीं आयेगी। इस प्रकार से आप बौद्ध संवृति से विभ्रमैकांत साधन को और अविभ्रम के दूषण को अर्थात् सत्यकथन के दूषण को निश्चित कर लेते हैं और परमार्थ से--सत्य रूप से कुछ भी निश्चित नहीं करते हैं । इस प्रकार के आपके वचन उपेक्षा करने योग्य ही हैं। इस तरह इस विभ्रमैकांत को कहने वाले उस बुद्ध भगवान् को आज भी अन्य-धर्मकीर्ति आदि मानते हैं यह अचित्य और अनल्पतम अज्ञान के ही कारण से है और इसका पार पाना अत्यन्त अशक्य-कठिन ही है। यह अतीव आश्चर्य की ही बात है। 1 ततश्च । दि० प्र०। 2 सौगतः। ब्या०प्र०। 3 कोर्थः । ब्या० प्र०। 4 अद्यापि श्रीमदकलंकदेवाचार्यसूर्यवाक्यरश्मिषु सत्स्वम्ये तम्मतानुसारिणः तं बिभ्रमैकान्तबादिनमनुसरन्ति । दि० प्र०। 5 एतत् । दि० प्र० । 6 निर्बाहशून्यम् । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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