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________________ अष्टसहस्री [ द्वि० प० कारिका ३१ ज्ञानं हि बहिरासत्त्वादेव, न पुनः स्वरूपासत्त्वात्, इदं तु विभ्रमकान्तसंवेदनं बहिरन्तरप्यर्थासत्त्वादिति' कथं न तदतिशेते ? न चास्य स्वरूपसत्त्वं, तद्वयवस्थानस्य विपक्षव्यवच्छेदेन प्रतिपत्तिपथमुपनेतुमशक्त: । स्वपरस्वभावप्रतिपत्तिशून्येन' स्वपरपक्षसाधनदूषणव्यवस्था प्रत्ये. तीति किमपि महाद्भुतम् । संवृत्त्या प्रत्येतीति चायुक्तं, कथंचिदपि परमार्थप्रतिपत्त्यभावे संवृतिप्रतिपत्त्ययोगात् परमार्थविपर्ययरूपत्वात्संवृतेः । अन्यथा परमार्थस्य संवृतिरिति नाम वह बहिरंग और अंतरंगरूप पदार्थों को अपेक्षा भी असत्रूप ही है इसलिये वह स्वप्नज्ञान का उलघन करने वाला क्यों नहीं होगा? अर्थात् स्वप्नज्ञान से अधिक ही भ्रांततर होगा क्योंकि स्वप्नज्ञान में तो मात्र बाह्य पदार्थ वहाँ नहीं हैं, किन्तु अन्तरंग ज्ञान मौजूद है लेकिन यहाँ विभ्रमकांत में तो बहिरंग और अन्तरंग कोई भी पदार्थ नहीं हैं। इस ज्ञान का तो स्वरूप से भी सत्त्व नहीं है। पुनःविपक्ष-अभ्रान्त स्वरूप के व्यवच्छेद द्वारा उसकी व्यवस्था को प्रतिपत्तिपथ को प्राप्त कराना भी शक्य नहीं है अर्थात् अभ्रातस्वरूप का व्यवच्छेद करके भी विभ्रनकांतरूप ज्ञान की व्यवस्था करना शक्य नहीं है क्योंकि अभ्रांत स्वरूप को माने बिना उसका व्यवच्छेद भी कैसे होगा? पुनः आप सुगत "इस प्रकार से स्वपर स्वभाव के ज्ञान से शून्य भ्रांत ज्ञान के द्वारा स्वपक्ष साधन और परपक्ष दूषण को व्यवस्था का निश्चय करते हैं यह एक महान आश्चर्य की बात है ?" अर्थात् आपका कहना है कि भ्रांतज्ञान अपने स्वरूप से रहित है और परस्वरूप से भी रहित है, पुन: आप इसी स्वपर स्वभाव से रहित ज्ञान के द्वारा स्वपक्ष साधन और परपक्ष दूषण का निर्णय भी कैसे कर लेते हैं ? यह समझ में नहीं आता है। बौद्ध-हमारा ज्ञान संवृत्ति से निश्चय करता है। जैन-यह कथन अयुक्त है। किसी प्रकार से भी परमार्थ से ज्ञान का अभाव मान लेने पर संवृत्ति से भी ज्ञान का अभाव होगा क्योंकि संवृत्ति तो परमार्थ से विपरीत-अवास्तविकरूप ही है। 1 विभ्रमैकान्तसंवेदनं कर्तृ तत् स्वप्नज्ञानं कथं नातिक्रामति । अपितु अतिक्रामति । दि० प्र०। 2 स्वरूपे । दि. प्र०। 3 स्याद्वादी वदति अस्य विभ्रमकान्तसंवेदनस्य स्वरूपेण सत्त्वं नास्ति । दि० प्र०। 4 कुतः । दि० प्र० । 5 स्वरूप । दि० प्र०। 6 अत्राह विभ्रमैकान्तवादी मल्लक्षणो जन: स्वपरस्वभावप्रतिपत्तिशून्येन स्वपरपक्षसाधनदूषणव्यवस्थां कल्पनया निश्चिनोति । स्याद्वाद्याह इति चायुक्तम् । कस्मात् । कथञ्चित्परमार्थनिश्चयाभावे संवत्तेरभावः । पुनः कस्मात् संवृत्तिः परमार्थविरुद्धा यतः। अन्यथा संवृत्ति परमार्थविपर्यया न भवति चेत्तदा अस्माभिः परमार्थ इति भवता संवत्तिरिति नाम करणभेदः नत्वर्थभेदः विभ्रमैकान्तवादिनां तदा निधि भवति । दि०प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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