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________________ सामान्यवाद का खण्डन ] तृतीय भाग स्वयमनिश्चितात्मोपलम्भस्यापि' । स्वयमनिर्णीतेन नामात्मना' बुद्धिरर्थ व्यवस्थापयतीति सुव्यवस्थितं तत्त्वम् । [ विभ्रमकान्तवादी कथयति यत् ज्ञानं स्वरूपं पररूपं वा कञ्चिदप्यर्थ न निश्चिनोतीति तस्य विचारः क्रियते जैनाचार्यः । ] न वै स्वरूपं पररूपं वा बुद्धिरध्यवस्यति निविषयत्वाद्धान्तेः स्वप्नबुद्धिवदिति विभ्रमकान्तवादिवचनम् । इदमतो भ्रान्ततरं, बहिरन्तश्च सद्भावासिद्धेः । स्वप्नादिभ्रान्त पर-विकल्पांतर से होता है तब तो अनवस्था दोष के आ जाने से प्रतिपत्ति-ज्ञान ही नहीं हो सकेगा इसलिये अर्थविकल्प भी नहीं होगा। तब तो यह सारा जगत अंधकल्प-अंधे के सदृश ही हो जायेगा" क्योंकि स्वयं अनिश्चयात्मक विकल्पज्ञान से अर्थ का निश्चय नहीं हो सकता है। "यह विकल्पज्ञान परोक्ष बुद्धिवाद अर्थात् मीमांसकाभिमत ज्ञान स्वयं परोक्ष है उस परोक्ष ज्ञानवाद का उलंघन नहीं करता है क्योंकि सर्वथा अर्थ को ग्रहण करने का उच्छेद दोनों में समान है" अर्थात् जैसे मीमांसक का ज्ञान परोक्ष है तथैव आपके यहाँ किसी भी ज्ञान से पदार्थ का निश्चय नहीं होता है क्योंकि जिस प्रकार से मीमांसकाभिमत अप्रत्यक्ष ज्ञान पदार्थ को प्रत्यक्ष नहीं कर सकता है अर्थात स्वयं अपने आपको नहीं जानने वाला परोक्ष ज्ञान है। तथैवस्वयं अनिश्चितात्मोपलंम-किसी का निश्चय नहीं करने वाला विकल्पज्ञान भी अर्थ का जानने वाला सिद्ध नहीं हो सकता है अतः आपके यहाँ "ज्ञान स्वयं अनिश्चयात्मक होकर ही पदार्थ को व्यवस्था करता है ऐसा कहने से तो आपका तत्त्व व्यवस्थित ही क्या सुव्यवस्थित ही है- यह उपहास वचन है इसका अर्थ यह है कि आपका तत्त्व कथमपि व्यवस्थित नहीं हो सकता है। [ विभ्रमकांतवादी का कहना है कि ज्ञान अपने स्वरूप या पररूप किसी का निश्चय नहीं करता है, इस पर जैनाचार्य विचार करते हैं। ] विभ्रमवादी-ज्ञान स्वरूप अथवा पररूप का निश्चय नहीं कराता है क्योंकि वह ज्ञान निविषयक है । मात्र भ्रांति से ही ऐसा प्रतीत होता है कि ज्ञान स्वपर का निश्चय कराता है किन्तु यह कथन वास्तविक नहीं है जैसे कि स्वप्नज्ञान वास्तविक नहीं है। जैन-आप विभ्रमैकांतवादियों का यह कथन तो विभ्रम एकांत को मान्यता से भी अधिक भ्रांततर है क्योंकि इस मान्यता से तो बहिरंग और अंतरंगरूप पदार्थ के सद्भाव को असिद्धि ही हो जाती है" क्योंकि जो स्वप्नादि का भ्रांतज्ञान है वह बाह्य पदार्थ के असत्त्व होने से ही भ्रांत है, किन्तु वह स्वप्नज्ञान स्वरूप से असत्रूप होने से भ्रांत हो ऐसा नहीं है और यह जो विभ्रमकांत संवेदन है 1 ज्ञानस्य । वसः । यसः । दि० प्र०। 2 ज्ञानस्य । स्फुटम् । दि० प्र०। 3 स्वरूपेण । दि० प्र०। 4 अभ्रान्तं भ्रान्तम् । दि० प्र० । 5 परः । दि० प्र०। 6 इदं विभ्रमैकान्तवादिवचनमतः स्वप्नज्ञानादतिभ्रान्तं कस्मात् । बाह्याभ्यन्तरङ्गपदार्थसत्वासिद्धेः । दि० प्र०। 7 नानार्थप्रतिभासन । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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