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अष्टसहस्री
[ द्वि०प० कारिका ३१ न्तरेण प्रत्येतीति' सुपरिबोधप्रज्ञो देवानांप्रियः। न ह्यविकल्पेतरराश्योरर्थानर्थविषयत्वं विशदेतरात्मत्वं वाऽनुपष्णवेतररूपत्वं वा येन विकल्पान्तरेण प्रत्येति । तद्वस्तुविषयं युक्तं, तस्य' विकल्पराशावनर्थविषयेनुप्रवेशात् । स्वत एव विकल्पसंविदां निर्णये स्वलक्षणविषयोपि विकल्पः स्यात् । परतश्चेदनवस्थानादप्रतिपत्तिः । अतोर्थविकल्पोपि मा भदित्यन्धकल्पं जगत् स्यात्, स्वयमनिश्चयात्मनो विकल्पादर्थनिश्चयानुपपत्तेः । न चायं परोक्षबुद्धिवादमतिशेते सर्वथार्थचिन्तनोच्छेदाविशेषात् । यथैव ह्यप्रत्यक्षोपलम्भस्य नार्थदृष्टिः प्रसिध्यति तथा निश्चित करते हैं। इस प्रकार से आप बौद्ध सुपरिबोध प्रज्ञविद्वान होकर भी देवानांप्रिय-मूर्ख
भावार्थ-निर्विकल्प तो विशद है और पदार्थ को विषय करता है तथा अनुमान अविशद है और सामान्य को विषय करता है। इन दोनों को बनाने वाला जो विकल्पांतर है वह भी अपने हो स्वरूपमात्र को जानने वाला है ऐसा कहने वाला बौद्ध तो सचमुच में पंडित मूर्ख ही है । निर्विकल्प. ज्ञान अर्थ को विषय करने वाला हो, अथवा अभ्रांत हो, तथा सविकल्पज्ञान अर्थ को विषय नहीं करने वाला अविशद अथवा भ्रांत होवे ऐसी बात तो है नहीं कि जिससे विकल्पान्तर से उसका निश्चय किया जावे अर्थात् ऐसा नहीं है ।
वह विकल्पांतर वस्तु को विषय करने वाला है वह बात युक्त है क्योंकि उसका विकल्पज्ञान में स्वलक्षण से भिन्न विषय में अनुप्रवेश हो जाता है। यदि आप सौगत ऐसा कहें कि "विकल्पज्ञानों का स्वतः ही निर्णय होता है तब तो स्वलक्षण विषय भी विकल्प हो जायेगा अर्थात् विकल्प का जो स्वरूप है वह सविकल्पक हो जायेगा। पुन: यह कथन विरुद्ध हो जायेगा कि - "सर्वे बोधा: स्वरूपे निविकल्पकाः" सभी ज्ञान अपने स्वरूप में निर्विकल्पक है। यदि आप ऐसा कहें कि विकल्पज्ञान का निर्णय
1 उपहासवचनम् । दि० प्र०। 2 तद्विकल्पान्तरं वस्तु ग्राहकमिति वक्तुं यूक्तं न हि कस्मात्तस्य विकल्पान्तरस्थावस्तुगोचरे विकल्पराशिमध्ये निपतितत्वात् । दि० प्र०। 3 विकल्पान्तरस्य । दि० प्र०। 4 परिज्ञानम् । दि० प्र०। 5 स्याद्वादी वदति हे सोगत ! अतः कारणात्त्वन्मते अर्थस्य वस्तुनः विकल्पमात्रमपि मा भवतु । इति हेतोः सर्वो लोकोंधसमो जातः कस्मात् ज्ञानस्याज्ञानस्वस्वरूपस्यार्थ निश्चयो नोपपद्यते यतः अयं सोगतः परोक्षज्ञानवादं मीमांसकाद्यभ्युपगतं नातिकामति परोक्षज्ञानवादे सति त इत्यर्थः । कस्मात्सौगताभ्युपगतविकल्पज्ञानमीमांसकाभ्युपगतपरोक्षज्ञानवादयोः उभयत्र सर्वथा पदार्थनिश्चयाभावेन कृत्वा विशेषो नास्ति यतः = मीमांसकमते ज्ञानं स्वं न जानाति परमेव जानाति यथा सूतीक्ष्णाणि खड्गधारा स्वं न छिनत्ति परमेव छिनत्तीति परोक्षज्ञानवादलक्षणम् । दि० प्र०। 6 यथा परोक्षज्ञानस्यार्थनिश्चितिर्न सिद्धयति । तथा स्वमनिश्चितस्वरूपस्य विकल्पज्ञानस्याप्यर्थनिश्चयो नास्ति । हे सौगत ! त्वन्मतरहस्यं सुव्यवस्थितं मया किमिति । इति किं ज्ञानं स्वं न जानाति किल । बहिरथं निश्चयायतीत्यायातम् । अत्राह विभ्रमकान्तवादी। बुद्धिः पक्ष: स्वरूपं पररूपं वा अध्यवस्यतीति साध्यो धर्मः निविषयत्वात् कुतः भ्रान्तिवशात् । यथास्वप्रबुद्धिः । दि० प्र० ।
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