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सामान्यवाद का खण्डन 1
तृतीय भाग
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वर्थावेकीकृत्य यथेष्टं व्यवहरन्ति । क्षणभङ्गादिसाधनवचनमन्यद्वा सत्यं', न प्रधानेश्वरादिसाधनवाक्यम् । परमार्थतस्तु न किंचिद्वचनमवितथम् । इत्यभ्युपगमेपि ' ' दृश्य विकल्प्यार्थाकारयोः कथंचिदप्यतादात्म्ये' स्वलक्षणं सर्वथानवधारितलक्षणं 'दानादिचेतोधर्मादिक्षणवत् ' कथं संशीतिमतिवर्तत ? निर्विकल्पकदर्शनात्तदवधारणासंभवात् विकल्पानां चावधास्तुविषयत्वात्" । " सोयमविकल्पेतर राश्योरथेतरविषयत्वमन्यद्वा 12 स्वांशमात्रावलम्बिना विकल्पावचन अथवा अन्य कुछ भी वचन सत्य हैं । प्रधान और ईश्वर आदि के साधक वचन सत्य नहीं हैं" किन्तु परमार्थ से तो किंचित् भी वचन सत्य हैं ही नहीं ।
जैन - ऐसा स्वीकार करने पर भी " दृश्य और विकल्प्य अर्थ के आकार में कथंचित् भी तादात्म्य के स्वीकार न करने पर आपके द्वारा मान्य स्वलक्षण सर्वथा अनवधारित-लक्षण वाला है पुन: वह संशय का उलंघन कैसे कर सकेगा ? जैसे कि दानादि चित्त और धर्मादि क्षण में कथंचित् एकत्व का अभाव होने पर वे संशय का उलंघन नहीं कर सकते हैं ।"
भावार्थ -- स्वलक्षण अनवधारित इसलिये है कि निर्विकल्प प्रत्यक्ष के द्वारा ही वह ग्राह्य है और निर्विकल्पज्ञान से किसी चीज का निश्चय होता नहीं अतः संशय ही बना रहेगा । दान देने का क्षण उसके अनंतर पुण्य बंध का क्षण इन दोनों में एकत्व का अभाव होने से किस दान का क्या धर्म-पुण्य या फल है इसमें संशय ही बना रहेगा ? क्योंकि निर्विकल्प दर्शन से तो स्वलक्षण का अवधारण करना असंभव है और यदि आप कहें कि प्रत्यक्ष के अनंतरभावी विकल्प से स्वलक्षण का अवधारण हो जायेगा । ' तब तो विकल्प ज्ञान तो अवधास्तु को विषय करने वाले हैं अर्थात् निर्विकल्प के द्वारा अवधारित निश्चित की गई वस्तु को ही विषय करते हैं ।"
दूसरी बात यह है कि आप सौगत निर्विकल्प और सविकल्प राशि में अर्थ एवं विकल्प्य विषय को अथवा अन्य - - विशदात्मक, अविशदात्मक को स्वांशमात्रावलंबी ( स्वरूपमात्रग्राही ) विकल्पांतर से
"
1 सर्वं वचनं सत्यमित्यङ्गीकृतं सोगतेन । दि० प्र० । 2 इति विवेचयन्ति व्याख्यातारः । ब्या० प्र० । 3 स्याद्वादी वदति हे सौगत सर्व वचः सत्यमित्यंगीकारेऽपि दृश्यविकल्पार्थंकारयोः कथञ्चित्तादात्म्याभावे स्वलक्षणं विशेषः सर्वथाऽनिश्चितस्वरूपं सत्कथं संशयमतिवर्त्ततेऽपितु नातिवर्त्तते । कोर्थः । स्वलक्षणं संशयमेव किंवत् । दानादानोपकार हिसानुपकारादयश्चेतसि यस्य पुंसः सदानादि चेताः । तस्य धर्माधर्मपदार्थों यथा संशयो । दि० प्र० । 4 स्वरूपयोः । दृश्यविकल्पार्थयोराकारी तयोः । दि० प्र० । 5 न किञ्चिद्वचनमवितथमित्युभ्युपगतत्वादेव दृश्यविकलपाकारयोरतादात्म्यमभ्युपगतं स्यात्तयोस्तादात्म्ये वचनस्य कथञ्चित् दृश्यविषयत्वेनावितथत्वघटनात् । एवं वचनस्यार्था संस्पर्शित्वे विकल्पस्यापि तदेव स्यात् । तथा च वक्ष्यमाणं दूषणं सर्वयुक्तम् । दि० प्र० । 6 यथा दानादि चेतोनवधारितं तथा स्वलक्षणमपि । दि० प्र० । 7 धर्मादिक्षणो यथा संशीति नातिवर्त्तते सर्वथानवधारितलक्षणत्वात्तथा स्वलक्षणमपि । ब्या० प्र० । 8 स्वलक्षणस्य निश्चयासंभवात् । दि० प्र० । 9 अवस्तु इति पा० । दि० प्र० । 10 प्रत्यक्षः । दि० प्र० । 11 स्वलक्षण | स्थूलः । दि० प्र० । 12 सोयं सोगतः निर्विकल्पकसविकल्पकराश्योर्द्वयोरर्थानर्थविषयत्वम् । अन्यद्वा विशदाविशदात्मकत्वनिर्बाधबाधस्वरूपत्वं वा आत्मीयनिरंशक्षणमाश्रयिणा विकल्पान्तरेण कृत्वा जानातीति सुपरिबोधप्रज्ञः किमपितु नः कोर्थो सौगतो देवानांप्रियो मूर्खो भवति । दि० प्र० ।
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