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________________ ६४ ] अष्टसहस्री . [ द्वि प० कारिका ३१ 'त्रिरूपहेतुसूचित्वादविसंवादादितरवचनाद्विशेष' इति चेन्न, तथापि क्षणभङ्गादिसाधनवचनमन्यद्वा न किंचित् सत्यं स्याद्वक्रऽभिप्रेतमात्रसूचित्वात् प्रधानेश्वरादिसाधनवाक्यवत् । न हि वकभिप्रेतमात्रसूचित्वाविशेषेपि क्षणभङ्गादिसाधनं प्रतिपक्षदूषणं वा सत्यं न पुनः प्रधानेश्वरादिसाधनमिति शक्यव्यवस्थं, यतस्तदेव' संवादि स्यात् , सर्वथा विशेषाभावात् । 'सदप्रतिपादनाद्वा न क्षणभङ्गादिसाधनवचनं विपक्षदूषणवचनं वा सत्यं, प्रसिद्धालीकवचनवत् । ननु च व्याख्यातारः खल्वेवं विवेचयन्ति न व्यवहर्तारः । ते हि दृश्य विकल्प्या सूचित करता है। और अविसंवाद रूप होने से इतर वचन से भिन्न है अतः विशेषता है अर्थात् शब्दज्ञान वासना के नियम से विशेष नहीं है किन्तु विरूप हेतु को सूचित करने वाला होने से ही विशेष है। जैन-नहीं । उस प्रकार से भी “सर्व क्षणिक सत्वात् विद्युदादिवत्" इत्यादि रूप क्षण भंगादिक को सिद्ध करने वाले साधन वचन अथवा अन्य कोई वचन सत्य नहीं हो सकेंगे। क्योंकि वे वक्ता के अभिप्रेत मात्र को सूचित करते हैं वास्तव में अर्थ से शून्य हैं। जैसे कि प्रधान, ईश्वर आदि को सिद्ध करने वाले अनुमान वाक्य सत्य नहीं हैं।" __ वक्ता के अभिप्रेत इष्ट मात्र को सूचित करने की दोनों जगह समानता होने पर भी क्षण भंगादि को सिद्ध करने वाले वचन अथवा प्रतिपक्ष को दूषित करने वाले वचन सत्य हैं किन्तु प्रधान और ईश्वर आदि को सिद्ध करने वाले वचन सत्य नहीं हैं, ऐसी व्यवस्था करना शक्य नहीं है कि जिससे आपका कथन ही संवादी सत्य रूप हो सके क्योंकि दोनों जगह ही सर्वथा विशेषता का अभाव है अर्थात् दोनों जगह के ही वचन वक्ता के अभिप्राय को सूचित करने वाले हैं। "अथवा सत अर्थ के प्रतिपादन करने वाले न होने से क्षणिकत्व के साधन-वचन या विपक्ष के दूषणवचन सत्य नहीं हैं, प्रसिद्ध असत्य वचन के समान" अर्थात् जैसे नदी के किनारे लड्डुओं के ढेर रखे हैं ये वचन असत्यरूप से प्रसिद्ध हैं तथैव सतरूप अर्थ का प्रतिपादन न करने से आपके द्वारा मान्य स्वपक्ष साधक परपक्ष दूषक वचन भी असत्य ही हैं क्योंकि आपका सिद्धांत है कि वचन वास्तविक अर्थ को नहीं बौद्ध–व्याख्यानकर्ता धर्मकीर्ति आदि आचार्य ही "क्षणविनश्वर आदि वचन सत्य हैं" इस प्रकार से विवेचन करते हैं किन्तु व्यवहार कर्ता मनुष्य वैसा व्यवहार नहीं करते हैं प्रत्युत वे लोग दृश्य और विकल्प्य अर्थ को एकरूप करके इच्छानुसार व्यवहार करते हैं । "क्षणिकत्व आदि के साधक 1 साध्याभिधानात्पक्षोक्तिः पारम्पर्येणाप्यलं शक्तस्यसूचकं हेतुवचो शक्तमपि स्वयमिति सौगतः । दि० प्र० । त्रिरूपा. हेतु सूचित्वादिति वा पाठः । दि० प्र०। 2 सत्यात् । दि० प्र०। 3 विपक्षदूषणवचनम् । दि० प्र०। 4 तदेव क्षणभंगादिसाधनं वचनं संवादि सत्यं भवति यतः कुतः न कुतोपि कस्मात् क्षणभंगादिसाधने वचने अन्यत्र क्वाभिप्रेतसूचित्वेन कृत्वा विशेषो नास्ति यतः । दि० प्र० । 5 नवस्यात् । दि० प्र०। 6 सत्यार्थः । दि० प्र०। 7 किञ्च । दि० प्र० । 8 व्यवहारः । दि० प्र० । 9 स्वलक्षणस्थूले । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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