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________________ सामान्यवाद का खण्डन ] तृतीय भाग प्यसार, चन्द्रार्कादावतिदूरे दृश्ये विकल्प्याध्यारोपादवेशद्यप्रतीतिप्रसङ्गात्, प्रत्यासन्नतरे' च चक्षुषः करतलरेखादौ विकल्प्ये दृश्याध्यारोपाद्वैशद्यप्रसङ्गात् । यदि पुनरदृष्टविशेषवशांदृश्यविकल्प्ययोरेकत्वाध्यारोपाविशेषेपि क्वचिद्वैशद्यमवैशद्यं च यथाप्रतीत्यभिधीयते तदा तत एवेन्द्रियजत्वाविशेषेपि क्वचिद्विशदप्रतिभासोन्यवान्यथेति नैकान्तेन दर्शनस्य विशदात्मकत्वमर्थसन्निधानापेक्षत्वं वा' यतः परमार्थकतानत्वान्नियमः स्यात्, न पुनः शब्दबुद्धिवदुपादाननियमादिति । [ त्रिरूपहेतुसूचकं वचनं सत्यं नान्यदिति मान्यतां निराकुर्वन्ति जैनाचार्याः । ] शब्दबुद्धेरवस्तुविषयत्वेप्युपादाननियमाद्विशेषः, परार्थानुमानस्य वक्रऽभिप्रेतसमये न जैन-यदि आप सौगत ऐसा कहें तब तो उसी प्रकार से दूर और आसन्नवर्ती ज्ञानों में इंद्रिय से उत्पन्न होने की समानता होने पर भी किसी आसन्न अर्थ में विशद प्रतिभास है और अन्यत्र दूरवर्ती अर्थ में अन्यथा-अविशद प्रतिभास है इस प्रकार से सर्वथा एकांत से निर्विकल्प प्रत्यक्ष में स्पष्टरूपता और अर्थ संनिधान की अपेक्षा है ऐसा नहीं कह सकते हैं कि जिससे 'आपका निर्विकल्प प्रत्यक्ष परमार्थ को विषय करने वाला है' यह अर्थप्रकाशत्व का नियम बन सके, तथा शब्द बुद्धि में उपादान के नियम से वासना के बल से शब्द का नियम है, परमार्थ को विषय करना नहीं है ऐसा कहा जा सके अर्थात् शब्दज्ञान में भी परमार्थ को विषय का विरोध नहीं है। भावार्थ-बौद्धों का कहना है कि निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही पारमार्थिक वस्तु को विषय करने वाला है शब्द नहीं । शब्द तो मात्र पूर्ववासना के नियम से अवास्तविक-सामान्य को विषय करता है इत्यादि । इस पर जैनाचार्यों ने उपर्युक्त प्रकार से खण्डन करते हुये शब्द को भी पारमार्थिक वस्तु को विषय करने वाला सिद्ध किया है। [ त्रिरूप हेतु को कहने वाले वचन सत्य हैं अन्य नहीं, इस मान्यता का जैनाचार्य निराकरण करते हैं। ] बौद्ध-शब्दज्ञान अवस्तु को विषय करने वाला है ऐसा मानने पर भी वासना के नियम से उसमें विशेष-अन्तर नहीं है। किन्तु वक्ता के इष्ट संकेत के होने पर परार्थानुमान में त्रिरूप हेतु को 1 अतिशयेन प्रत्यासन्ने । ब्या० प्र०। 2 स्थूलत्त्वात् करतलरेखादीनाम् । ब्या० प्र० । 3 स्याद्वादी वदति हे सौगत यदि चादृश्यष्टविशेषबलात् तदाचरणक्षयोपशमादिवशात् दृश्यविकल्पयोर्द्वयोरपि एकत्वाद्धयारोपस्याविशेषेपि क्वचित् दृश्ये विकल्पे वा वैशद्यमवंशद्यञ्च प्रतीतिमनतिक्रम्य कथ्यते तस्मात्केवलं दृश्यं विकल्पञ्च इन्द्रियजातमिति विशेषाभावेपि क्वचिदेकत्र विशदप्रतिभासोऽन्य स्मिन् अन्यथा विशदप्रतिभास इति न=तथा निर्विकल्पकैदर्शनस्य विशदस्वभावोऽर्थसमीपाश्रयत्वं वा परमार्थंकतानत्वात् । न पुनः यथा शब्दबुद्धेः वासनावशात् विशदात्मकत्वमर्थसन्निद्यानापेक्षत्वं वा वदतीति सौगताभ्युपगते यतः कुतः नियमः स्यात् न कुतोपि । अथाह सौगत इति न । दि० प्र० । 4 विभ्रमाभावप्रसंगात्ततश्च सर्वत्र सत्यज्ञानप्रसंगः । ब्या० प्र०। 5 सर्व पक्षः क्षणिकं भवतीति साध्यो धर्मः सत्त्वात् । इत्यादि सौगतविहितंपर प्रबोधनार्थं यदनुमानं तस्य उक्तहेतुद्वयात् । इतरजनवचनात् । गवाश्च घटपट इत्यादिव्यवहारलक्षणात् सकाशात् विशेषोस्तीति चेन्न स्याद्वाद्यनुमानं रचयति । यथा सांख्यैरभ्युपगतं प्रधानेश्वरादिसाधनं वचनं सत्यं न । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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