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________________ ६२ ] अष्टसहस्री [ द्वि०प० कारिका ३१ स्यात् ? गोदर्शनभिन्नविषयत्वादश्वविकल्पस्य' नैवमिति चेन्न, नीलदर्शनविकल्पयोरपि' अभिन्नविषयत्वात्तद्वैशद्याप्रतीतिप्रसङ्गात् । न हि तयोरभिन्नविषयत्वं' , स्वलक्षणसामान्ययोस्तद्विषययोर्भेदात् । तत्र दृश्यविकल्प्ययोरेकत्वाध्यवसायान्नीलविकल्पे वैशद्यप्रतिभास इति चेन्न, तत एव दूरेपि वैशद्यप्रतिभासप्रसङ्गात् । स्यान्मतं, प्रत्यासन्नेर्थे विकल्प्ये दृश्यस्याध्यारोपाद्विकल्पवैशा दूरे तु दृश्ये विकल्प्यस्याध्यारोपाद्दर्शनावैशा प्रतीयते, कुतश्चिद्विभ्रमात्, इति तद बौद्ध -- अरे भाई ! गोदर्शन निर्विकल्प है और अश्वविकल्प तो उससे भिन्न विषयवाला है अतएव ऐसा होना शक्य नहीं है। जैन-नहीं, क्योंकि नील दर्शन और नील विकल्प इन दोनों में भी भिन्न विषयता होने से नील दर्शन के स्पष्टता की अप्रतीति का प्रसंग आ जायेगा। अर्थात नील दर्शन का कि क्षणिक है और नील विकल्प तो स्थिर, स्थल, घटादि सामान्य है। इन दोनों का भिन्न-भिन्न विषय होने से नील दर्शन की भी स्पष्ट प्रतीति मत मानिये क्योंकि इन दोनों में अभिन्न विषयपना नहीं है। स्वलक्षण और सामान्यरूप से इन दोनों के विषय में भेद माना गया है। बौद्ध-उस निकटवर्ती देश में दृश्य-स्वलक्षण और विकल्प्य-सामान्य में एकत्व का अध्यवसाय होने से नील विकल्प में स्पष्ट प्रतिभास होता है। जैन-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि उसी एकत्व के अध्यवसाय से ही दूरवर्ती पदार्थ में भी स्पष्ट प्रतिभास का प्रसंग आ जायेगा। बौद्ध -प्रत्यासन्न अर्थ जो कि विकल्प्य--विकल्पज्ञान का विषय है उसमें निर्विकल्पज्ञान के विषयभूत दृश्य का अध्यारोप होने से वह विकल्प भी स्पष्ट है किन्तु दूरवर्ती निर्विकल्प के विषयभूत दृश्य में विकल्प्य का अध्यारोप होने से प्रत्यक्ष-दर्शन अष्पस्ट है ऐसा प्रतीति में आता है क्योंकि दृश्य और विकल्प्य में सदृशता को विषय करने वाला कोई एक विभ्रम ही ऐसा है। जैन-यह कथन भी असार है। अतिदूर में चन्द्र और सूर्य का निर्विकल्पज्ञान के द्वारा ग्रहण होने पर उसमें भी विकल्प्य का अध्यारोप होने से अस्पष्ट दिखने की प्रतीति का प्रसंग आ जायेगा और चक्षु से अत्यन्त निकटवर्ती हस्त की रेखा आदिकों को देखने वाले विकल्पज्ञान के विषय में निर्विकल्पज्ञान के विषय का अध्यारोप होने से उसे स्पष्टरूपता का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा अर्थात् लगभग ३५ लाख मील ऊपर अत्यन्त दूरवर्ती सूर्य, चन्द्र, तारे आदि स्पष्ट दिख रहे हैं। हाथ को बिल्कुल आँख के पास लगा देने से अतिनिकट भी हस्तरेखा आदि अस्पष्ट दिखती है, तुम्हारे सिद्धांत से तो इन ज्ञानों में विपरीतता आनी चाहिये। बौद्ध-अदृष्ट-भाग्य विशेष के निमित्त से दृश्य और विकल्प्य में एकत्व का अध्यारोप समान होने पर भी किसी निकटवर्ती अर्थ में स्पष्टता और किसी दूरवर्ती पदार्थ में अस्पष्टता प्रतीति के अनुसार ही कही जाती है । 1 का । वसः । ब्या० प्र०। 2 नीलस्वलक्षणे दर्शनं निर्विकल्पकप्रत्यक्षं विकल्पश्चतयोः । ब्या० प्र०। 3 नील. विकल्पस्य । ब्या० प्र० । 4 अवैशद्यप्रतीतिरस्तू अस्ति च वैशद्यप्रतीतिः। ब्या० प्र०। 5 नीलदर्शनविकल्पयोः । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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