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सामान्यवाद का खण्डन ]
तृतीय भाग पुरोत्तिन्यर्थेऽक्षज्ञानजविकल्पवैशद्यस्य तल्लघुवृत्तिनिबन्धनत्वाभावप्रसङ्गात्' "विमूढो लघुवृत्तेर्वा तयोरैवयं व्यवस्यति" इति वचनविरोधात् । यदि पुनरासन्नार्थे निर्विकल्पकस्य बलीयस्त्वात्तद्वैशयेनानन्तरविकल्पावैशद्यस्याभिभवाद्वैशद्यप्रतिभासो न पुनर्दू रे, विपर्ययादिति मतं तदा 'पुरोवर्तिगोदर्शनवैशयेनाश्वविकल्पावैशद्यस्याभिभूतिप्रसङ्गात् तत्र वैशद्यप्रतीतिः किन्न
अनंतर चिरकाल के बाद तो सविकल्प की उत्पत्ति नहीं होती है किन्तु उसमें भी सविकल्प की उत्पत्ति अतिशीघ्र ही हो जाती है अर्थात् विकल्पज्ञान को कुछ पक्षपात तो है नहीं कि दूरवर्ती पदार्थ के बाद वह शीघ्र हो जावे और निकटवर्ती पदार्थ के निर्विकल्प के बाद शीघ्र ही न होकर देर से होवे ।
पूरोवर्ती पदार्थ में इन्द्रियज्ञान से उत्पन्न हये विकल्प की विशदपने में निर्विकल्प और उससे उत्पन्न हुये सविकल्प इन दोनों में लघुवृत्तिरूप कारण के अभाव का प्रसंग आ जावेगा अर्थात् सविकल्प और निर्विकल्प में जो युगपत् वृत्ति है वह लघुवृत्ति कहलाती है। अथवा निर्विकल्प के अनंतर ही जो सविकल्प की उत्पत्ति होती है उसे लघुवृत्ति कहते हैं। इन दोनों में लघुवृत्तिरूप कारण नहीं बन सकेगा। तब तो "मूढ़मनुष्य लघुवृत्ति से उन सविकल्प, निर्विकल्प दोनों ही ज्ञानों में एकत्व का ही निश्चय कर लेता है" यह आप बौद्धों का कथन विरोध को प्राप्त हो जायेगा।
बौद्ध-आसन्नवर्ती पदार्थ में निर्विकल्पज्ञान बलवान् है अतएव उस निर्विकल्प की विशदता से अनंतरवर्ती विकल्पज्ञान की अविशदता तिरस्कृत हो जाती है-दब जाती है अतः उस अनंतरवर्ती विकल्पज्ञान में भी अविकल्प संबंधी विशदता का ही प्रतिभास होता है किन्तु दूरवर्ती पदार्थ में इससे विपरीत ही प्रतिभास होता है क्योंकि दूरवर्ती पदार्थ में निर्विकल्पज्ञान अबलीय-निर्बल है अर्थात् दूरवर्ती पदार्थ में निर्विकल्पज्ञान की स्पष्टता को अनंतर उत्पन्न हुआ विकल्पज्ञान दबा देता है क्योंकि वहाँ वह बलवान् है।
जैन–यदि आप ऐसा कहते हैं तब तो पुरोवर्ती गो के दर्शन की विशदता से अश्व विकल्प की अविशदता के दब जाने का प्रसंग आ जावेगा पुनः उस अश्व-विकल्प में स्पष्टपने की प्रतीति क्यों नहीं हो जायेगी ? अर्थात् किसी ने सामने गाय को देखा और अनंतर क्षण में ही अश्व का विकल्प किया, गो दर्शन का ज्ञान स्पष्ट था उसने अश्व विकल्प के अस्पष्ट ज्ञान को दबा दिया अतः अश्व का ही स्पष्ट अनुभव आना चाहिये।
1 मनसो युगपद्वत्तेः स विकल्पाविकल्पयोरिदमस्य पूर्वार्द्धम् । दि० प्र० । 2 सौगतसिद्धान्तः। दि० प्र०। 3 निश्चिनोति । दि० प्र०। 4 स्याद्वादी वदति हे सौगत यदि पूनः आसन्नार्थे निर्विकल्पकदर्शनं विशदं प्रतिभासते। कस्मात् । आसन्नार्थे बलत्वात । पुनः कस्मात । अनन्तरोत्पन्न विकल्पज्ञानावशद्यस्य निर्विकल्पकदर्शनवैशयेन कृत्वा तिरस्करणादिति हेतुद्व यम् । पुनः दूरेथें निर्विकल्पकं विशदं न प्रतिभासते । कस्मात् विपर्यायात् । पूर्वोक्तहेतुद्वयाभावादिति तव मतं तदाऽश्वमन्वेषयतः पुंसः आसन्नस्वगोदर्शनवैशयेन कृत्वाऽश्वविकल्पावेशद्यस्य तिरस्कारोभवतु तत्र गोदर्शने वैशय । दि० प्र०। 5 क्वमेश्वः क्वमेश्वइति वदन्त: गोदर्शनम् । ब्या० प्र०। 6 एवं चेत्ते दर्शनवेशद्येनाश्वदर्शनवैशयं न स्यात्तथा च सति अयं गौर्न भवतीति वैशयं न स्यात् । दि० प्र० ।
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