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________________ ६० ] अष्टसहस्री [ निर्विकरूपज्ञानमर्थसन्निधानमपेक्षत एवास्य निराकरणम् । ] नावश्यमिन्द्रियज्ञान मर्थ संनिधानमपेक्षते 'विप्लवाभावप्रसङ्गात् । नापि विशदात्मकमेव, दूरेपि तथा प्रतिभासप्रसङ्गाद्यथाऽऽरात्' । न हि आरादेवार्थे निर्विकल्पक मिन्द्रियज्ञानं न पुनदूरे इति शक्यं वक्तुम्, इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधानाविशेषात् । दूरार्थेपीन्द्रियज्ञानं विशदात्मकमेव, तत्रावैशद्यस्याशूत्पन्नानन्तरविकल्पेन सहैकत्वाध्यारोपादेव' प्रतीतेरिति चेन्न, आसन्नार्थेपि तदवैशद्यप्रतीतिप्रसङ्गात् । न हि तत्राविकल्पानन्तरं चिराद्विकल्पस्योत्पत्तिः ", [ द्वि० प० कारिका ३१ [ निर्विकल्पज्ञान अवश्य ही अर्थ सन्निधान की अपेक्षा रखता है इसका खण्डन । ] तथाहि -" इन्द्रियज्ञान अवश्यमेव अर्थ के सन्निधान की अपेक्षा करे ऐसा नहीं है । अन्यथा विप्लव --- विभ्रमादि ज्ञान के अभाव का प्रसंग आ जायेगा अर्थात् जैसे द्विचंद्रादि दर्शन, केशोंडुक ज्ञान आदि हैं वे अर्थ की अपेक्षा से रहित हैं और वह इंद्रियज्ञान विशदात्मक ही हो ऐसा भी नियम नहीं है क्योंकि दूर में भी उस प्रकार विशद - स्पष्ट रूप से प्रतिभास का प्रसंग आ जायेगा । जैसा कि निकट से विशद -- स्पष्ट प्रतिभास देखा जाता है ।" निकटवर्ती पदार्थ में ही इन्द्रियज्ञान निर्विकल्पक हो किंतु दूरवर्ती अर्थ में न हो ऐसा तो कहना शक्य नहीं है क्योंकि इन्द्रियों के साथ अन्वय व्यतिरेक का विधान दूर और निकट दोनों जगह समान है । बौद्ध - दूरवर्ती पदार्थ में भी इन्द्रियज्ञान स्पष्ट ही है किंतु उस इन्द्रियज्ञान में जो अस्पष्टता है वह आशु - शीघ्र उत्पन्न हुये अनन्तरवर्ती विकल्प ज्ञान के साथ ( निर्विकल्पज्ञान के अनंतर उत्पन्न हुए सविकल्प ज्ञान के साथ) एकत्व का अध्यारोप कर लेती है इसीलिये उस निर्विकल्पज्ञान में भी अस्पष्टप की प्रतीति आने लगती है अर्थात् दूरवर्ती अर्थ में पहले इन्द्रियज्ञान निर्विकल्प रूप से विशद ही होता है किन्तु अनंतर क्षण में ही शीघ्र विकल्पज्ञान उत्पन्न हो जाता है जिसका प्रतिभास अविशद है अतः उसके साथ एकत्व का अध्यारोप हो जाने से ही वह दूरवर्ती पदार्थ अविशद - अस्पष्ट दिखाई देने लगते हैं । जैन - ऐसा नहीं कह सकते । इस प्रकार से तो निकटवर्ती पदार्थ में भी उस एकत्व के अध्यारोप से अविशद - अस्पष्ट प्रतीति का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा क्योंकि उस निकटवर्ती अर्थ में निर्विकल्प के Jain Education International 1 सर्वथा । द्विचन्द्रादि । व्या० प्र० । 2 अन्यथा | ब्या० प्र० । 3 सामीप्य । ब्या० प्र० । 4 सोगतः । दि० प्र० । 5 सौगतो वदति निर्विकल्पकदर्शनं दूरार्थेपि विशदात्मकमेव । तत्र दूरार्थे इन्द्रियज्ञाने तत् क्षणानन्तरमेव सविकल्पकज्ञानेन सहैक्याधारोपादवैशद्यं प्रतीयत इति चेन्न । कस्मादासन्नार्थेपि तस्य निर्विकल्पकदर्शनस्यावैशद्यप्रतीतिप्रसंगो घटते यतः = तत्रासन्नार्थे निर्विकल्पक दर्शनानन्तरं किञ्चित्कालं विलम्ब्य विकल्पस्योत्पत्तिर्न हि किन्तु तत् क्षणानन्तरमेवोत्पत्तिः । अन्यथा निकटवत्तनि वस्तुनि सविकल्पकं वैशद्यस्य निर्विकलपदर्शनात् । आशूत्पत्तिनिबन्धनस्याभाव: प्रसजतीति स्ववचनविरोधः । दि० प्र० । 6 अश्वेवविकल्पोत्पत्तिरितिभावः । अन्यथा । दि० प्र० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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