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________________ बौद्धाभिमत पृथक्त्व एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग [ ५६ वार्तम्, अविकल्पेपि तथैव प्रसङ्गात् । शक्यं हि वक्तुम् “अविकल्पकप्रत्यक्षस्य न परमार्थंकतानत्वान्नियमो', द्विचन्द्रादिदर्शनाभावप्रसङ्गात् किन्तूपादानस्य स्ववासनाविशेषस्य भेदात्" इति । तदेवमनवधारितात्मक वस्तु स्वलक्षणमापनीपोत, विकल्पेनेवाविकल्पेनाप्यवधारयितुमशक्तेः । निर्विकल्पकस्यार्थसंनिधानापेक्षत्वाद्वैशद्याच्च परमार्थंकतानत्वमिति' चेन्न, तदनियमात् । तथा हि । छोड़कर अन्य विशेष कथन संभव नहीं है अर्थात् अपने यथार्थ अर्थ का प्रतिपादन करना यही तो सत्य शब्द में असत्य शब्द से विशेषता है। बौद्ध-"शब्द परमार्थभूत एक विषय का आश्रय लेकर अर्थ का प्रतिपादक है ऐसा नियम नहीं बन सकता है" क्योंकि परमार्थभूत शब्दों को विषय करने वाला मानने पर समयान्तरभेदीभिन्न-भिन्न मतों में भेद को करने रूप अर्थों में उन ईश्वर, प्रधान, आदि शब्दों की अकारण प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी ऐसा कथन है अर्थात् ईश्वर और प्रधान आदि अर्थ पारमार्थिक नहीं हैं फिर भी उनमें शब्द की प्रवृत्ति पाई जाती है, "किन्तु उपादान विशेष-वासना विशेष से ही शब्दों में नियम देखा जाता है।" भावार्थ-मतांतरों में भेद को करने वाले अर्थों में शब्दों की प्रवृत्ति नहीं होती है ऐसा बौद्धों का कहना अयुक्त है क्योंकि भिन्न-भिन्न मतों में शब्दों की प्रवृत्ति देखी जाती है। वह शब्दप्रवृत्ति उन मतांतरों में कैसे होती है ? ऐसा प्रश्न करने पर बौद्ध कहता है कि वासनाविशेष के निमित्त से शब्दों से ऐसी व्यवस्था बन जाती है। मतलब बौद्ध हर किसी विषय में वासना को आगे कर देता है। जैन-"यह कथन भी सारहीन है, पुन: निविकल्प प्रत्यक्ष में भी उसी प्रकार वासना विशेष का प्रसंग आ जायेगा ?" हम ऐसा कह सकते हैं कि-"निर्विकल्प प्रत्यक्ष में परमार्थ को विषय करने का नियम नहीं है अन्यथा द्विचन्द्रादि के दर्शन के अभाव का प्रसंग आ जायेगा किन्तु स्ववासना विशेषरूप उपादान में भेद पाया जाता है अर्थात् इसीलिये निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही अर्थ को प्रकाशित करने वाला है ऐसा नियम है। "अतएव उपर्युक्त प्रकार से अनवधारित वस्तु ही स्वलक्षण कहलाती है।" अन्यथा विकल्प के समान अविकल्प के द्वारा भी वस्तु का अवधारण करना शक्य नहीं हो सकेगा। बौद्ध-निर्विकल्प प्रत्यक्ष अर्थ के संनिधान की अपेक्षा नहीं रखता है और विशद है अतएव परमार्थ को विषय करने वाला है किन्तु शब्द वैसा नहीं है। जैन-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि उस निर्विकल्प प्रत्यक्ष में भी कोई नियम नहीं है अर्थात् यह निर्विकल्पज्ञान अर्थ की अपेक्षा न रख और स्पष्ट हो यह कोई नियम नहीं है। 1 सर्वथा प्रत्यक्ष परमार्थमाश्रित्य प्रवर्तते चेत् । ब्या० प्र०। 2 अन्यथा । ब्या० प्र०। 3 अनिश्चितस्वरूपं जातम् । स्वरूपम् । दि० प्र० । 4 स्वलक्षणरूपस्य वस्तुनः । दि० प्र० । 5 अन्यवृत्तित्वम् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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