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________________ ७० अष्टसहस्री बौद्धाभिमतसामान्य खण्डन का सारांश बौद्ध - वचन सामान्य अर्थ को कहने वाले हैं विशेष को नहीं एवं सामान्य वास्तविक नहीं है। तथा विशेष अनंत हैं अत: उनका संकेत करना शक्य नहीं है । वह विशेष निर्विकल्प बुद्धि में प्रतिभासित होता है एवं सामान्य शब्दज्ञान में प्रतिभासित होता है अतएव वह मिथ्या है। विकल्पज्ञान संकेत सापेक्ष है, निर्विकल्पज्ञान स्वलक्षण अर्थ की अपेक्षा रखता है यदि स्वलक्षण भी शब्दज्ञान से जाना जाये तब तो शब्द के द्वारा रावण, महापद्म आदि अतीत- अनागत पदार्थ नहीं कहे जा सकेंगे क्योंकि वे नष्ट एवं अनुत्पन्न हैं, वे स्वलक्षणरूप नहीं हैं अतएव स्वलक्षण अवाच्य है । 1 [ द्वि० प० कारिका ३१ जैनाचार्य - ऐसी अवस्था में तो आपके यहाँ स्वयं सत्य माने गये सभी वचन मिथ्या ही ठहरेंगे क्योंकि स्वलक्षणरूप विशेष तो अवाच्य है तथा सामान्य अवस्तु है तब तो शब्द के द्वारा वस्तु नहीं कही जा सकेगी पुनः शब्द के उच्चारण से क्या प्रयोजन है ? जब कि अश्व शब्द अपने अर्थ को नहीं कहता है वह तो अन्य व्यावृत्ति मात्र अर्थ को कहने वाला है अतः मौन ले लेना चाहिये अथवा चाहे जो कुछ बोल देना चाहिये सब समान है । अपने यथार्थ अर्थ का प्रतिपादन करने वाले शब्द सत्य माने हैं किन्तु जब शब्द परमार्थ को विषय ही नहीं करेंगे तो सत्य एवं असत्य शब्द समान हो जाने से आपके पक्ष को सिद्ध करने वाले धर्मकीर्ति आदि के वचन एवं आपका उपर्युक्त सिद्धांत भी सत्य कैसे ठहरेगा ? या तो शब्द में कोई अन्तर न होने से सभी के मत सिद्ध हो जायेंगे या सर्वथा शून्यवाद हो आ जायेगा । तथा हम ऐसा भी कह सकेंगे कि निर्विकल्प भी परमार्थ को विषय नहीं करता है यदि आप ऐसा कहें कि निर्विकल्प प्रत्यक्ष अर्थ के संविधान की अपेक्षा रखता है एवं विशद है अतः परमार्थ को विषय करता है । यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि इन्द्रियज्ञान यदि विशद है तो निकट के समान दूर में भी स्पष्ट प्रतिभास होना चाहिये क्योंकि इन्द्रिय के साथ अन्वयव्यतिरेक तो दोनों जगह समान है यदि आप कहें कि निर्विकल्पज्ञान के अनंतर शीघ्र ही विकल्पज्ञान उत्पन्न होता है उसका प्रतिभास अस्पष्ट है किन्तु दोनों में एकत्व का अध्यारोप होने से दूरवर्ती पदार्थ अविशद दिखते हैं, तो एकत्व के अध्यारोप से विपरीत क्यों नहीं हो जाता है ? अर्थात् निकटवर्ती अस्पष्ट एवं दूरवर्ती पदार्थ स्पष्ट क्यों नहीं दिखते ? यदि कहो आसन्नवर्ती पदार्थ में निर्विकल्पज्ञान बलवान है अत: वह विकल्पज्ञान की अस्पष्टता को दबा देता है । किन्तु दूरवर्ती ज्ञान में निर्विकल्प निर्बल है । तब तो किसी ने सामने गौ देखी और अनंतर क्षण 'अश्व का विकल्प किया, गोदर्शन स्पष्ट था उसने अश्व विकल्प के अस्पष्ट ज्ञान को दबा दिया, अतः अश्व का ही स्पष्ट अनुभव आना चाहिये यह उदाहरण भिन्न विषय वाला है अतः ऐसा शक्य नहीं है यह उत्तर भी ठीक नहीं है । इसलिये शब्द पूर्व की वासना से अवास्तविक सामान्य को विषय करता है यह कथन सर्वथा मिथ्यात्व की वासना से ही होने से मिथ्यारूप ही है । सार का सार - यदि वचन विशेष- एक क्षणवर्ती स्वलक्षणरूप पर्याय को नहीं कहते हैं और सामान्य को ही कहते हैं तथा सामान्य अवस्तु है । तब सत्य को न कहने वाले वचन सदा असत्य ही रहेंगे पुनः आप बौद्धों का तत्त्व भी उन वचनों से कहा गया होने से असत्य ही रहेगा सत्य नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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