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________________ बौद्धाभिमत पृथक्त्व एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग [ ५७ ह्यनन्ता' विशेषाः शक्याः संकेतयितुं ततो नाभिधीयेरन्, असंकेतितानभिधानात् । विशेषदर्शनवत्तबुद्धावप्रतिभासनादर्थसन्निधानानपेक्षणाच्च । न हि स्वलक्षणे दर्शने यथा संकेतनिरपेक्षो विशेषः प्रतिभासते तथा शब्दबुद्धावपि, तस्याः स्वलक्षणसंनिधानानपेक्षत्वात् , तदपेक्षत्वेऽतीतानुत्पन्नादिषु 10शब्दबुद्धेरभावप्रसङ्गात् । रखता है" अर्थात् जैसे विशेष दर्शन में विशेष का प्रतिभास होता है उसी प्रकार से शब्द ज्ञान में विशेष का प्रतिभास नहीं होता है। ये शब्द निर्विकल्पज्ञान में झलकते नहीं हैं और न अर्थ की अपेक्षा ही रखते हैं । जिस प्रकार से स्वलक्षण दर्शन-निर्विकल्प प्रत्यक्ष में संकेतनिरपेक्ष विशेष प्रतिभासित होता है उस प्रकार से शब्दबुद्धि में भी प्रतिभासित होवे ऐसी बात नहीं है क्योंकि वह शब्दबुद्धि स्वलक्षण के सन्निधान की अपेक्षा नहीं रखती है। यदि शब्दज्ञान में भी स्वलक्षण की अपेक्षा मानों तब तो अतीत और अनुत्पन्न-अनागत आदि में शब्दबुद्धि के अभाव का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। भावार्थ-जिस प्रकार निर्विकल्प ज्ञान में संकेतनिरपेक्ष विशेष स्वलक्षण का प्रतिभास होता है उस तरह उसका प्रतिभास विकल्प ज्ञान में नहीं हो सकता है। कारण कि विकल्प ज्ञान संकेत सापेक्ष है तथा निर्विकल्प ज्ञान स्वलक्षण–अर्थ संनिधान की अपेक्षा वाला नहीं है। यदि वह उसकी अपेक्षा वाला माना जाये तो अतीत एवं अनागत आदि पदार्थों में सबिकल्पज्ञान की उत्पत्ति ही नहीं हो सकती है क्योंकि उस समय अतीत एवं अनुत्पन्न अर्थ का संनिधान नहीं है पुनः शब्द के द्वारा रावण एवं महापद्म आदि कहे ही नहीं जा सकेंगे क्योंकि वे अतीतानुत्पन्न हैं इसलिये शब्द सामान्य को ही विषय करता है। 1 सौगताभ्युपगताः स्वलक्षणाविशेष अनन्ता ज्ञातुं शक्या नहि यत एवं ततः गीभिः शब्दैः विशेषा न अभिलप्येरन् कोर्थः शब्दाः विशेषान् न प्रतिपादयन्ति । कस्मात् । अनिश्चितस्याप्रतिपादनात् । किंवत् निर्विकल्पकदर्शनवत् इत्येको हेतुः । पुनः कस्मात् शब्दज्ञाने अर्था न प्रतिभासन्ते यतः इति द्वितीयो हेतुः पुनः कस्मात् शब्दाः क्षणक्षयिलक्षणार्थसमीपं नाश्रयन्ते यत इति तृतीयो हेतुः । दि० प्र०। 2 निश्चेतुम् । दि० प्र०। 3 विशेषाणाम् । असंकेतिते वस्तुनि अभिधानाभावात् । दि० प्र०। 4 निर्विकल्प । दि० प्र०। 5 शब्दबुद्धौ। शब्दज्ञाने । विशेषस्य । दि० प्र०। 6 अग्रेतनश्च शब्दो दृष्टव्यः । शब्दबुद्धेः । दि० प्र०। 7 शब्दबुद्धावप्रतिभासनं कुत इत्याह । दि० प्र०। 8 अन्यथा शब्दार्थः। दि० प्र०। 9 शब्दबुद्धः तस्य स्वलक्षणसन्निधानस्यापेक्षत्वे सत्यतीतानागतादिष्वर्थेषु शब्दबुद्धेरभावः प्रसजति यतः । अर्थसंधानापेक्षत्वे । दि० प्र०। 10 स्वलक्षणेषु । दि० प्र० । 11 शब्देन सामान्यस्य वाच्यत्वं यदि स्यात् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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