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________________ अष्टसहस्री [ द्वि० प० कारिका ३१ किञ्च-- सामान्यार्था गिरोन्येषां विशेषो नाभिलप्यते । सामान्याभावतस्तेषां मृषैव सकला' गिरः ॥३१॥ सामान्यमेवार्थोभिधेयो यासां ताः सामान्यार्था गिरो यतस्ताभिविशेषो नाभिलप्यते इत्यन्ये, तेषां मृषैव सकलाः स्वयं सत्यत्वेनाभिमता अपि गिरः स्युः, सामान्यस्य' वास्तवस्याभावात् । कुतः पुनः सामान्यस्यैवाभिधेयत्वमिति चेत्, विशेषाणामशक्यसमयत्वात् । न हम बौद्धों के यहाँ सामान्य तो है ही परन्तु शब्द से वाच्य होने से वास्तविक नहीं है, ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं बौद्धजनों के यहाँ वचन, सामान्य अर्थ को ही कहते। है विशेष, वास्तविक स्वलक्षण, वचन उसे नहिं कह सकते ॥ बिन विशेष सामान्य कहाँ है, फिर सामान्य न होने से। सारे वचन व्यर्थ अरु झूठे, ही होंगे उनके मत से ॥३१॥ कारिकार्थ-आप बौद्धों के यहाँ वचन सामान्य अर्थ को कहने वाले हैं, उन वचनों के द्वारा विशेष का कथन नहीं किया जा सकता है पुनः आप के यहाँ सामान्य का अभाव होने से संपूर्ण वचन असत्य-मिथ्या ही हैं ॥३१॥ बौद्ध-सामान्य ही है अर्थ-अभिधेय जिनका वे वचन सामान्यार्थक कहलाते हैं क्योंकि वचनों से विशेष का कथन नहीं किया जा सकता है । जैन-ऐसी मान्यता में तो आपके यहाँ स्वयं सत्यरूप माने गये भी सभी वचन असत्य ही ठहरते हैं क्योंकि आपने सामान्य को वास्तविक नहीं माना है। फिर भी सामान्य को हो वाच्यत्व कैसे है ? बौद्ध-"पर्यायरूप विशेषों में समय-संकेत करना अशक्य है" क्योंकि विशेष अनंत हैं अतः उनका संकेत करना शक्य नहीं है अतएव शब्द के द्वारा वे कहे नहीं जा सकते हैं "और जिसमें किसी प्रकार का संकेत नहीं हुआ है, उसका कथन नहीं हो सकता है। विशेष दर्शन के समान उन शब्दों का निर्विकल्प ज्ञान में प्रतिभास नहीं होता है और वह शब्द अर्थ के संनिधान की अपेक्षा नहीं 1 वचनानि । ब्या०प्र० । 2 स्वलक्षणं रूपं क्षणिकरूपं इत्यर्थः । दि० प्र०। 3 शब्दैः। दि० प्र०14 असत्याः स्युः । दि० प्र०। 5 सत्यत्वे नास्तिता घटपटादिग्राहिकाः । दि० प्र० । 6 गीभिः । दि० प्र०। 7 यत: सौगतमते अन्यापोहलक्षणं सामान्य वस्तुभूतं न भवति । दि० प्र० । 8 सौगत: पृच्छति हे स्याद्वादिन ! अस्माकं गिरा सामान्यस्याभिधेयत्वं कुतस्त्वयाज्ञातमित्यभिप्रायेण प्रश्नः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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